गाथा २६ ] [ १०३ मान्यता जेनी छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. केमके जीवनुं जीवन-मरण तेना आयुकर्मने आधीन छे, तथा पर वस्तुने आत्मा ग्रही के छोडी शक्तो नथी. वळी प्रवचनसार गाथा १७२ना अलिंगग्रहणना वीस बोलमां १३ मो बोल छे. एमां आवे छे के पांच इन्द्रियो, त्रण बळ (मन, वचन अने काय) श्वासोच्छ्वास अने आयु ए दश प्राणथी जीवनुं जीवन छे ज नहि. निश्चयथी एनुं जीवन अंतर जीवतर-ज्ञानदर्शनरूप चेतन प्राणथी छे. अशुद्ध- निश्चयनयथी कहो तो ए भावेन्द्रियथी छे अने जड दश प्राणथी जीवे छे ए तो असद्भूत व्यवहारनयथी कथन छे.
आ एक एक रजकण छे एमां अनंत शक्तिओ-गुण छे. एमां क्रियावती नामनी एक शक्ति-गुण छे. आ शरीर, मन, वाणी आदिनुं जे हलन-चलन थाय छे ए तो रजकणोनी क्रियावती शक्तिने लईने छे, पण आत्माने लईने नहि. आ आंगळीने आत्मा हलावे तो हाले छे एम त्रण काळमां नथी. ए तो एनी (रजकणोनी) क्रियावती शक्तिने लईने हाले छे. जडनुं हालवुं जडना अस्तित्वमां अने चेतननुं हालवुं चेतनना अस्तित्वमां छे. भाई! आ तो मूळ वात छे. जड अने चेतन बन्नेनो स्वभाव प्रगट भिन्न भिन्न छे. अहीं तो राग अने दया, दाननो जे विकल्य ऊठे एनो ए (अज्ञानी) र्क्ता थाय छे. ए ज्ञानस्वरूप आत्मा ए विकारने केम करे? ए तो चैतन्य ज्ञानस्वरूपी भगवान ज्ञाता-द्रष्टाना भावथी भरेलो छे. ए परने शी रीते मारे के जीवाडे? ए रागने शी रीते करे? आत्मामां विकार करवानी तो कोई शक्ति नथी. एवो गुण नथी जे विकार करे. विकार जे पर्यायमां थाय छे ए तो पर्यायनी योग्यताथी पर्यायमां थाय छे, पण कर्मथी नहि अने द्रव्य-गुणथी पण नहि. झीणी वात, भाई. वीतराग मार्गने अनंतकाळमां समज्यो नथी.
वळी कोई एम कहे छे के शास्त्रमां कुंदकुंदाचार्ये पुण्यने व्यवहार धर्म कह्यो छे अने व्यवहारने साधन कह्युं छे. कहे छे-‘पुण्णफला अरहंता’ एटले के पुण्यना फळमां अरिहंतपद मळे छे. परंतु आ अज्ञानीनी खोटी मान्यता छे. पुण्यनुं फळ अरिहंतपद छे ज नहि. पुण्यना फळमां तो बहारना अतिशयनी वात लीधी छे. प्रवचनसार गाथा ४पनी टीका जुओ. पुण्यनो विपाक भगवानने-ज्ञानने अकिंचित्कर छे एम त्यां लीधुं छे. वात तो आवी छे. गाथाना मथाळे ‘तीर्थकृतां पुण्यविपाकोऽकिंचित्कार एव’ पुण्यनो विपाक अकिंचित्कर ज छे एम कह्युं छे. आत्माने पुण्यनुं फळ कांई कार्यकारी नथी. अरिहंतने जे देहादिनी क्रिया, वाणी नीकळवी, चालवुं इत्यादि क्रिया छे ते पुण्यना फळरूप छे.