३९८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१० ते काळे कर्म निमित्त अवश्य छे, पण एमांथी क्रोधादि विकारनी पर्याय आवे छे एम नथी. खरेखर तो जे पर्याय जे समये थाय छे ते जातनी अंदर तेनी योग्यता ज छे. तेथी केसर आदि नाखीने दुध पीवे तो मति स्फूरे-विकसे ईत्यादि परथी-परभावथी पोतानी ज्ञानदशा थवानी मान्यता मूढपणा सिवाय बीजुं कांई नथी. समजाणुं कांई....?
अहा! भगवान आत्मा अनंत भाव-स्वभाव जेवा के ज्ञानभाव, दर्शनभाव, आनंदभाव ईत्यादि पूरण भरेलो प्रभु छे. एना उपर पोतानुं लक्ष नथी, अने परभावनुं लक्ष रहेतां आ परभावमांथी मारो भाव-पर्याय आवे छे एम अज्ञानीने भ्रम छे. परभाव मारो भाव छे अथवा सर्व परभावो हुं ज छुं एम मानीने अज्ञानी परभावने पोतापणे करे छे, अने ए रीते पोतानो नाश करे छे.
अज्ञानी आ रीते परभावने पोतारूप करतो पोतानो नाश करे छे त्यारे धर्मी परभावथी पोतानुं असत्पणुं प्रकाशतो थको अर्थात् परभाव मारो कोई छे ज नहि. हुं परभावथी असत् छुं, ने स्व-भावथी सत् छुं एम अनेकान्तद्रष्टि वडे पोताने उद्धारे छे अर्थात् पोतानो नाश थवा देतो नथी. अहाहा....! धर्मी पोताना एक ज्ञायकभावने अनेकान्त वडे परथी जेम छे तेम भिन्न टकतो राखीने पोताने जिवाडे छे. तो-
प्रश्नः– श्रीमदे एम कह्युं छे के-
ते तो प्रभुए आपीयो, वर्तुं चरणाधीन.”
समाधानः– ए तो व्यवहारे विनयनां वचन छे बापु! शिष्यने विनयनो भाव आवतां व्यवहारथी एम कह्युं छे. व्यवहारनी एवी ज पद्धति छे. बाकी भाई! तुं कोई वस्तु छे के नहि? छो तो एनो कोई भाव-स्वभाव छे के नहि? जो छे तो जे कोई पर्याय समये समये आवे छे ते ए भावमांथी आवे छे, ते ए भावरूप छे, परभावरूप नथी. समजाय छे कांई.....?
भाई! तुं तारा द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी छो, ने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी नथी- आवुं वस्तुनुं सहज अनेकान्तस्वरूप छे. परद्रव्यो ज्ञानमां जणाय माटे परद्रव्यथी छुं, परक्षेत्रनो आकार ज्ञानमां जणाय माटे परक्षेत्रथी छुं, परकाळनुं पर्यायमां ज्ञान थाय माटे परकाळथी छुं, परभावनुं ज्ञान थाय माटे परभावथी छुं-एम छे नहि. अहो! केवुं सुंदर अनेकान्तनुं स्वरूप कह्युं छे. आ परम सत्य छे भाई! आ परम सत्यने स्वीकारीने ज्ञानी अंतर्लीन दशाने प्राप्त थई निराकुळ आनंदमय जीवन जीवे छे, ज्यारे अज्ञानी एकांते हुं परभावरूप छुं, ने परभाव मारारूप छे एम मानीने नाश पामे छे, चार गतिमां परिभ्रमे छे. पैसा-धन, स्त्री-कुटुंब-परिवार ईत्यादि बधां परभावरूप होवा छतां हुं