Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४०२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१० वस्तुने पकडवानी-ग्रहण करवानी दशा ज रहेती नथी अने तेथी तेने नित्य-ध्रुवनी द्रष्टि ज थती नथी, अर्थात् ते मिथ्याद्रष्टि ज रहे छे-नाश पामे छे. समजाणुं कांई....?

अहा! वस्तुस्वरूप अनेकान्तमय छे; ते नित्य-अनित्य बेय छे. धर्मी-स्याद्वादी, पोतानी ज्ञानमात्र वस्तु ज्ञानसामान्यथी नित्य होवा छतां, एनी वर्तमान वर्तती ज्ञान- दशाथी ते अनित्य छे एम बराबर जाणे छे. ‘ज्ञानमात्र भावने ज्ञानविशेष पण छे-’ एम नित्य-अनित्य बेयने स्वीकारी, नित्य उपर लक्ष करतो थको (नित्यना आश्रये प्रवर्ततो) अनित्य एवी पर्यायमां ते स्वात्मजनित आनंद ने शांतिने अनुभवे छे.

अनादिथी जीवने स्वस्वरूपनी भ्रमणा छे. हवे भ्रमणानो नाश करी निर्भ्रान्त थवुं ए पण बदल्या विना शी रीते थाय? परम आनंदस्वरूप धर्म अने मोक्ष ए पण पर्याय छे. हवे जो पर्यायनेज उडाडी दे तो आ कांई रहेतुं ज नथी, बदलवुं ए जो वस्तुनो स्वभाव न होय तो दुःखथी मुक्त थवापणुं पण रहेतुं नथी. तेथी पलटती ज्ञानदशाने नहि माननार, अवस्थाने उडाडीने अंतरंगमां जे शुद्ध ध्रुव नित्य छे तेने पण पामता नथी अर्थात् शुद्धनो अनुभव करी शकता नथी केमके अनुभव तो पर्यायमां ज थाय छे.

परंतु धर्मी-ज्ञानी तो अनित्यने अनित्य जाणतो, नित्यनो द्रष्टिमां लेतो, अनेकान्तद्रष्टि द्वारा, पोताना स्वरूपने जाणे-अनुभवे छे, पोतानो नाश थवा देतो नथी.

(अहीं तत्-अतत्ना २ भंग, एक-अनेकना २ भंग, सत्-असत्ना द्रव्य-क्षेत्र- काळ-भावथी ८ भंग, अने नित्य-अनित्यना २ भंग-एम बधा मळीने १४ भंग थया. आ चौद भंगोमां एम बताव्युं के -एकांतथी ज्ञानमात्र आत्मानो अभाव थाय छे अने अनेकान्तथी आत्मा जीवतो रहे छे; अर्थात् एकांतथी आत्मा जे स्वरूपे छे ते स्वरूपे समजातो नथी, स्वरूपमां परिणमतो नथी, अने अनेकान्तथी ते वास्तविक स्वरूपे समजाय छे, स्वरूपमां परिणमे छे). हवे-

*

अहीं नीचे प्रमाणे (१४ भंगोना कळशरूपे) १४ काव्यो पण कहेवामां आवे छेः- त्यां-

प्रथम, पहेला भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-

* कळश २४८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘बाह्य–अर्थैः परिपीतम्’ बाह्य पदार्थो वडे समस्तपणे पी जवामां आवेलुं, ‘उज्झित–निज–प्रव्यक्ति– रिक्तिभवत्’ पोतानी व्यक्तिने (-प्रगटताने) छोडी देवाथी खाली (-शून्य) थई गयेलुं, ‘परितः पररुपे एव विश्रान्तं’ समस्तपणे पररूपमां ज विश्रांत (अर्थात् पररूप उपर ज आधार राखतुं) एवुं ‘पशोः ज्ञानं’ पशुनुं