Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४०६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१० लईने ज्ञान थयुं छे. घडानुं ज्ञान थयुं एमां घडानुं जोर (कारणपणुं) छे. जो घडानुं कांई जोर (कारणपणुं) न होय तो घडानुं ज ते काळे ज्ञान केम थयुं? तेने कहीए -अरे भाई! ते काळे घटने जाणवापणे ज्ञान परिणम्युं छे ते ज्ञाननी दशा छे अने ते पोताथी पोतापणे थईने परिणमी छे, तेमां घडानुं कांई कारणपणुं नथी. घडो हो, पण घडाने लईने ज्ञाननी दशा थई नथी. त्यारे ते तर्क करी कहे छे-

सामे घट छे ते काळे एने पटनुं ज्ञान केम न थयुं? घटनुं ज केम थयुं? अरे भाई! तुं शुं विचारे छे आ? जे काळे घडाने जाणवारूप ज्ञाननी दशा थई छे ते तेनी ते काळे योग्यता छे, अने ते पोतानी पोताथी छे. तुं एक अवस्थाना (घटज्ञाननी अवस्थाना) काळे बीजी अवस्थानी (पटज्ञाननी अवस्थानी) कल्पना करे ए तो मिथ्या कल्पना ज छे, केमके एक काळे एक नियत अवस्था ज होय छे. तथापि घटज्ञान जो घडाथी थतुं होय तो सामे थांभलो होय तेने पण ज्ञान थवुं जोईए. पण एम छे नहि. वास्तवमां जेमां ज्ञान छे, जे ज्ञानस्वरूप छे तेने ज्ञान थाय छे अने ते पोताथी ज थाय छे, सामे घट छे माटे अहीं एनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. जुओ, सामे अक्षरो छे माटे एनुं ज्ञान थाय छे शुं एम छे? ना, एम नथी. जो एम होय ने? तो आंखना कांडाने पण ज्ञान थवुं जोईए. पण एम बनतुं नथी, केमके ज्ञान तो ज्ञानस्वरूप जे छे एमां थाय छे अने ते पोताथी थाय छे, परने कारणे नहि.

ओहो! जगतमां अनंता जीव, अनंतानंत पुद्गलो इत्यादि अनंता द्रव्यो छे. तेमां जेनो जे प्रकारनो काळ (पर्याय) छे तेनो ते प्रकारे पोताथी अस्तिपणे छे, ने परथी बिलकुल नथी. परमां पर-निमित्त तो अकिंचित्कर छे. निमित्तने शास्त्रमां (प्रवचनसार गाथा ६७मां) अकिंचित्कर कह्युं छे. उपादान स्वयं कर्ता थईने कार्यरूप परिणमे त्यारे निमित्तने निमित्त-कर्तानो आरोप आवे छे, पण वास्तवमां निमित्तथी कार्य थाय छे एम नथी. आ वस्तुस्थिति छे. पण शुं थाय? जगत एटले के पशु-अज्ञानीओ, पोताना सत्ने सत्पणे नहि राखीने, अर्थात् पोताना सत्ने परमां भेळवी दईने स्वस्वरूपना ईन्कार द्वारा नाश पामे छे अर्थात् चिरकाळपर्यंत घोर चतुर्गतिरूप संसार समुद्रमां डूबी मरे छे. आवी वात! समजाणुं कांई....?

हवे कहे छे- ‘स्याद्वादिनः तत् पुनः’ अने स्याद्वादीनुं ज्ञान तो, ‘यत् तत् तत् इह स्वरूपतः तत् इति’ जे तत् छे ते स्वरूपथी तत् छे (अर्थात् दरेक वस्तुने-तत्त्वने स्वरूपथी तत्पणुं छे) -एवी मान्यताने लीधे ‘दूर–उन्मग्न–घन–स्वभाव–भरतः’ अत्यंत प्रगट थयेला ज्ञानघनरूप स्वभावना भारथी, पूर्ण समुन्मज्जति’ संपूर्ण उदित (प्रगट) थाय छे.

अहाहा....! जोयुं? कहे छे- ‘स्याद्वादीनुं ज्ञान तो....’ , अर्थात् स्याद्वाद द्वारा