जेणे अनेकान्तस्वरूप वस्तुना यथार्थ रूपने साध्युं छे ते ज्ञानी-धर्मी पुरुषनुं ज्ञान तो, ‘जे तत् छे ते स्वरूपथी तत् छे’ अर्थात् मारुं ज्ञायक तत्त्व, एना अनंत गुण तथा एनी वर्तमान दशा -सहु पोताथी तत् छे, ने परथी-निमित्तथी नथी-एवी यथार्थ मान्यताने लीधे, अत्यंत प्रगट थयेला ज्ञानघनरूप स्वभावना अतिशय तेजथी संपूर्णपणे उदित थाय छे. एटले शुं? के ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा -पोताना द्रव्य-गुण-पर्याय-निज स्वरूपथी-ज्ञानस्वरूपथी तत् छे, ने परथी नथी-एवी भेदज्ञाननी द्रष्टि थतां ज्ञानीने झळहळ ज्योतिस्वरूप भगवान आत्मा संपूर्ण पर्यायमां प्रगट थाय छे-जणाय छे, अनुभवाय छे. आ तो अंतर-समजणथी चीज बापु! आ कांई वादविवादथी के क्रियाकांडथी हाथ आवे एवी चीज नथी.
अहा! पर्यायमां जे पूर्णपणुं प्रगट थाय छे ते पोताथी तत् छे, ने तेवी ज रीते सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकतारूप मोक्षमार्ग थाय ते पण पोताथी तत् छे, परने लईने के शुभरागने लईने छे एम नथी. व्यवहाररत्नत्रयने लईने निर्मळ रत्नत्रय थयां छे एम नथी, ने देव-गुरु-शास्त्रने लईने थयां छे एम पण नथी. कर्मनां उपशमादि तो क्यांय (कर्ममां) रही गयां. समजाणुं कांई.....?
अहा! आमां तो बधुं (बधी मिथ्या मान्यता) उडी जाय छे ने वस्तुव्यवस्था यथार्थ स्थापित थाय छे. शुं? के-
१. परज्ञेयथी ज्ञान नहि. २. शुभराग-व्यवहारथी निश्चय नहि, ने ३. समयसमयनी ते ते काळनी पर्याय स्वरूपथी तत् छे. एटले के प्रत्येक समये जे पर्याय थाय ते पोताथी ज थाय, परथी नहि, तेथी सांकळना अंकोडानी जेम क्रमनियत छे, तेमां कोई आगळ-पाछळ थाय नहि. जेम सांकळमां एक पछी एक अंकोडो क्रमनियत छे, तेम द्रव्यमां समये समये प्रगट थती पर्यायो क्रमनियत छे. जेम सांकळना अंकोडा आगळ-पाछळ करवा जाओ तो सांकळ तूटी जाय तेम द्रव्यमां प्रगट थती अवस्थाओ आगळ-पाछळ करवा जाओ तो द्रव्यनो नाश थई जाय, अर्थात् मिथ्यात्व थाय. हवे जेने आनी समजण ने श्रद्धामां ज वांधा होय तेने आचरण तो क्यांथी उदित थाय? न ज थाय.
‘कोई सर्वथा एकांती तो एम माने छे के-घटज्ञान घटना आधारे ज थाय छे माटे ज्ञान सर्व प्रकारे ज्ञेयो पर ज आधार राखे छे. आवुं माननार एकान्तवादीना ज्ञानने तो ज्ञेयो पी गयां, ज्ञान पोते कांई न रह्युं.’