४१०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१० परज्ञेय वस्तु मारी छे एवा मिथ्याभाव सहित तीव्र कषायनुं एवुं ज फळ होय छे. मिथ्याभाव महापाप छे भाई! असंयोगी तत्त्वने छोडीने परचीजोने जेणे पोतानी मानी छे ते मरीने संयोगमां ज चाल्यो जाय छे, छुटो रही शकतो नथी (मुक्त थई शकतो नथी). शुं कीधुं? जेणे पोतानी आत्मवस्तुने परथी सर्व प्रकारे जुदी मानी नथी, ने परमां ज हुं छुं एम मान्युं छे ते पर सहित ज सदा रहे छे अर्थात् चार गतिमां रखडी मरे छे. कोनी जेम? हराया ढोरनी जेम. समजाणुं कांई.....?
जेम हाथी चुरमुं अने घासने जुदा पाडया विना ज भेगा ज खाय छे तेम ज्ञानस्वरूपी आत्मा अने ज्ञेयोने भेळसेळ करी आ बधुं हुं छुं एम अनुभवे छे ते बधा हाथीनी जेम ढोर जेवा छे. लोको मांगलिकमां बोले खरा के-चत्तारि मंगलम्-अरिहंता मंगलम्, सिद्धा मंगलम्, साहू मंगलम्, केवली पण्णत्तो धम्मो मंगलम्- पण ए बोले एटलुं. पूछो के केवळीए कहेलो धर्म शुं? तो कांई खबर न मळे. (एम के ए तो केवळी जाणे.) आत्मा ज्ञानस्वरूपी छे, ते पोताना ज्ञानस्वरूपे-तत्पणे परिणमे अने ज्ञेयस्वरूपे- अतत्पणे न परिणमे तेने धर्म कह्यो छे. पण लोको तो व्रत करो, ने तप करो, ने भक्ति करो ने दानमां पांच-पचीस लाख खर्च करो एटले थई गयो धर्म -एम माने छे. पण बापु! ए तो बधा रागना प्रकार परज्ञेय छे. परथी-रागथी लाभ-धर्म मानीने तुं परनुं आचरण करे ए तो बापु! तारी ढोर जेवी स्वच्छंद चेष्टा छे. कह्युं ने अहीं के-एवा जीवो ढोरनी जेम स्वच्छंदपणे चेष्टा करे छे. आ तो भाई! थोडा शब्दो घणा गंभीर अर्थथी भरेला छे.
अहा! पोते स्वस्वरूपथी तत् ने परथी अतत् छे छतां परथी-पैसाथी, धन- संपत्ति-जर-जवाहरथी, शरीरथी, इन्द्रियथी ने विषयोथी मने ठीक छे, आनंद छे एम माननारा बहिरात्मा पशु जेवा निजानंदस्वरूपने भूलीने स्वच्छंदे अज्ञाननुं आचरण करे छे. तेओ मिथ्याद्रष्टि रह्या थका दुःखमय चार गतिमां परिभ्रमण कर्या ज करे छे.
हवे कहे छे– ‘पुनः’ अने ‘स्याद्वाददर्शी’ स्याद्वाददर्शी तो (स्याद्वादनो देखनार तो), ‘यत् तत् तत् पररूपतः न तत् इति’ जे तत् छे ते पररूपथी तत् नथी (अर्थात् दरेक तत्त्वने स्वरूपथी तत्पणुं होवा छतां पररूपथी अतत्पणुं छे) एम मानतो होवाथी, ‘विश्वात् भिन्नम् अविश्व–विश्वघटितं’ विश्वथी भिन्न एवा अने विश्वथी (-विश्वना निमित्तथी) रचायेलुं होवा छतां विश्वरूप नहि एवा (अर्थात् समस्त ज्ञेय वस्तुओना आकारे थवा छतां समस्त ज्ञेयवस्तुथी भिन्न एवा) ‘तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत्’ पोताना निजतत्त्वने स्पर्शे छे-अनुभवे छे.
अहा! स्याद्वाद वडे वस्तुने देखनार स्याद्वाददर्शी-धर्मी तो...... , वस्तुने केवी देखे छे? के हुं तो पोताना ज्ञान ने आनंदस्वरूपथी तत् छुं, ने परथी अतत्