Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४१२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१०

‘स्याद्वादी तो एम माने छे के-जे वस्तु पोताना स्वरूपथी तत्स्वरूप छे, ते ज वस्तु परना स्वरूपथी अतत्स्वरूप छे; माटे ज्ञान पोताना स्वरूपथी तत्स्वरूप छे, परंतु परज्ञेयना स्वरूपथी अतत्स्वरूप छे अर्थात् परज्ञेयोना आकारे थवा छतां तेमनाथी भिन्न छे.’

जोयुं? हुं पोताथी-निजज्ञानस्वरूपथी तत् छुं, ने पुण्य-पापना परिणामथी के व्यवहारना विकल्पथी अतत् छुं -एम ज्ञानी जाणे छे; अने एम जाणतो थको परज्ञेयोथी भिन्न निज ज्ञानतत्त्वने एकने स्पर्शे छे-अनुभवे छे. हवे परथी-निमित्तथी थाय ने व्यवहारथी थाय -एवा वलणमां ने वलणमां एणे आवी अंतरमां वात कदी रुचिथी सांभळी नथी; बहारमां संतुष्ट थईने बेठो छे, पण बापु! आ ज मारग छे, ने आ ज रीत छे.

अहीं पहेला भंगमां पोताथी एटले पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायथी तत् छे एम सिद्ध कर्युं, ने आ बीजा भंगमां परथी अतत् छे, परथी नथी एम सिद्ध कर्युं. ज्ञानी धर्मात्मा, हुं परथी नथी एम परथी विमुख थई स्वस्वरूपना आश्रये प्रवर्ते छे ने ए रीते निर्मळ अंतरंग ज्ञान-श्रद्धान-आचरणने प्राप्त थई निराकुळ आनंदने अनुभवे छे. आवी वात छे.

आ प्रमाणे पररूपथी अतत्पणानो भंग कह्यो.

*

हवे त्रीजा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-

* कळश २प०ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पशुः’ पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, ‘बाह्य–अर्थ–ग्रहणस्वभाव– भरतः’ बाह्य पदार्थोने ग्रहण करवाना (ज्ञानना) स्वभावनी अतिशयताने लीधे, ‘विष्वग्–विचित्र–उल्लसत्–ज्ञेयाकार–विशीर्ण–शक्तिः’ चारे तरफ (सर्वत्र) प्रगट थता अनेक प्रकारना ज्ञेयाकारोथी जेनी शक्ति विशीर्ण थई गई छे एवो थईने (अर्थात् अनेक ज्ञेयोना आकारो ज्ञानमां जणातां ज्ञाननी शक्तिने छिन्नभिन्न-खंडखंडरूप-थई जती मानीने) ‘अभितः त्रुटयन्’ समस्तपणे तूटी जतो थको (अर्थात् खंडखंडरूप अनेकरूप -थई जतो थको) ‘नश्यति’ नाश पामे छे;......

जोयुं? जे मिथ्यात्वथी बंधाय छे तेने अहीं पशु कहीने बोलाव्यो छे. एकान्तवादी अज्ञानी पशु छे, केमके ते मिथ्याभावयुक्त होवाथी बंधाय छे. केवी रीते? पोतानी ज्ञाननी पर्यायमां अनेकपणुं-अनेक ज्ञेयाकारो जणातां जाणे हुं अनेक थई गयो एम मानतो अज्ञानी पोताना स्वरूपनी अस्तिनो-होवापणानो नाश करे छे, अर्थात् ते मिथ्याभावथी बंधाय छे. एक समयनी ज्ञाननी पर्यायमां छए द्रव्योना द्रव्य-