४१४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१०
‘ज्ञान छे ते ज्ञेयोना आकारे परिणमवाथी अनेक देखाय छे, तेथी सर्वथा एकांतवादी ते ज्ञानने सर्वथा अनेक-खंडखंडरूप -देखतो थको ज्ञानमय एवा पोतानो नाश करे छे.’
अहा! पर्यायमां अनेक ज्ञेयाकारो जोईने, एकान्तवादीने वस्तुपणे अंदर एकलो हुं अखंडानंद-नित्यानंद-ज्ञानानंद प्रभु छुं एम एने पोतानुं एकपणुं बेसतुं नथी. जाणे सर्वथा हुं खंडखंड थई गयो एम देखतो थको ते ज्ञानमय एवा पोतानो नाश करे छे.
‘अने स्याद्वादी तो ज्ञानने, ज्ञेयाकार थवा छतां, सदा उदयमान द्रव्यपणा वडे एक देखे छे.’
अहा! स्याद्वादी -ज्ञानी पुरुष तो, अनेक ज्ञेयाकारोने जाणवारूप पर्यायने गौण करीने, सदा उदयमान द्रव्यपणा वडे ज्ञानने एक देखे छे, एक ज्ञानस्वरूपने देखे छे- अनुभवे छे. वस्तुपणे हुं आ एक छुं एम अनुभवे छे. समजाणुं कांई....?
आ प्रमाणे एकपणानो भंग कह्यो.
हवे चोथा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-
‘पशुः’ पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, ‘ज्ञेयाकार–कलङ्क–मेचक–चिति प्रक्षालनं कल्पयन्’ ज्ञेयाकारोरूपी कलंकथी (अनेकाकाररूप) मलिन एवा चेतनमां प्रक्षालन कल्पतो थको (अर्थात् चेतननी अनेकाकाररूप मलिनताने धोई नाखवानुं कल्पतो थको), ‘एकाकार–चिकीर्षया स्फुटम् अपि ज्ञानं न इच्छति’ एकाकार करवानी ईच्छाथी ज्ञानने-जो के ते ज्ञान अनेकाकारपणे प्रगट छे तो पण -इच्छतो नथी (अर्थात् ज्ञानने सर्वथा एकाकार मानीने ज्ञाननो अभाव करे छे);......
आ पोताने सर्वथा एकपणुं माने ने पर्यायथी अनेकपणुं छे ते स्वीकारे नहि ते पशु-एकांतवादी अज्ञानी छे एम कहे छे. अहाहा....! वस्तु तो सहज ज द्रव्यपर्यायरूप छे. द्रव्यरूपथी एकपणुं ने पर्यायथी अनेकपणुं ए वस्तुगत स्वभाव छे. जे अपेक्षा एक छे ते अपेक्षा अनेक छे एम नहि, तथा जे अपेक्षा अनेक छे ते अपेक्षा एक छे एम नहि. त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यस्वभावथी आत्मा एक छे, अने तेमां अनंतगुण ने प्रति समय तेनी अनंत पर्याय छे, ज्ञानमां ते जणाय पण छे-ए अपेक्षा -पर्याय अपेक्षा ते अनेक छे. परंतु अज्ञानी, तेनी ज्ञाननी पर्यायमां जे अनेक परज्ञेयो जणाय छे तेने कलंक मानी काढी नाखवा ईच्छे छे. ज्ञानमां जणाता ज्ञेयाकारोनो नाश करवा मागे छे.