Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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परिशिष्टः ४१७

अंतरंगमां अनुभवे छे. भाई! आमां तो मिथ्यादर्शननो नाश थई धर्म-सम्यग्दर्शन आदि-केम थाय एनी वात छे. ल्यो.

* कळश २प१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एकांतवादी ज्ञेयाकाररूप (अनेकाकाररूप) ज्ञानने मलिन जाणी, तेने धोईने- तेमांथी ज्ञेयाकारो दूर करीने, ज्ञानने ज्ञेयाकारो रहित एक-आकाररूप करवा इच्छतो थको ज्ञाननो नाश करे छे;.....’

अहा! पोतानुं जे टकतुं तत्त्व ते पर्यायमां अनंत ज्ञेयाकारोने जाणवापणे थयुं छे ते एनो-पर्यायनो स्वभाव छे एम न मानतां, ए कलंक थई गयुं एम मानी ज्ञानने ज्ञेयाकारो रहित एक आकाररूप करवा ईच्छतो थको ते पर्यायनो नाश करे छे, अने ए रीते पोतानो नाश करे छे.

‘अने अनेकांती तो सत्यार्थ वस्तुस्वभावने जाणतो होवाथी, ज्ञानने स्वरूपथी ज अनेकाकारपणुं माने छे.’

शुं कीधुं? अनंतने जाणवुं ए तो वस्तुनो-पर्यायनो स्वभाव छे. आ रीते ज्ञानने स्वरूपथी ज अनेकाकारपणुं छे त्यां मलिनता केवी? ज्ञानमां अनंतु जणाय ए तो ज्ञाननी निर्मळता छे. केवळज्ञानमां जणाय छे के नहि? अहीं मति-श्रुतज्ञाननी पर्यायमां अनंतु जणाय छे एम लीधुं छे. पर्यायमां अनंतु जणाय छतां पर्याय तो एक ज्ञानरूप ज छे, ज्ञेयरूप थती नथी, अने वस्तुपणे तो हुं एक ज छुं एम अनेकान्ती वस्तुने-ज्ञानने सम्यक् प्रकारे जाणे-अनुभवे छे.

आ प्रमाणे अनेकपणानो भंग कह्यो.

*

हवे पांचमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-

* कळश २प२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पशुः’ पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, ‘प्रत्यक्ष–आलिखित–स्फुट– स्थिर–परद्रव्य–अस्तिता–वञ्चितः’ प्रत्यक्ष आलिखित एवां प्रगट (-स्थूल) अने स्थिर (-निश्चळ) परद्रव्योना अस्तित्वथी ठगायो थको, ‘स्वद्रव्य–अनवलोकनेन परितः शून्यः’ स्वद्रव्यने (-आत्मद्रव्यना अस्तित्वने) नहि देखतो होवाथी समस्तपणे शून्य थयो थको ‘नश्यति’ नाश पामे छे;......

शुं कीधुं आ? के शरीर, इन्द्रिय, स्त्री-पुत्र आदि परद्रव्यो वडे मने ठीक छे एम माननारा बधा मूढ, पशु जेवा छे. अरे भाई! ए स्त्री-पुत्र आदि चीजो थोडा