Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४१८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१० काळ पहेलां तारी पासे न हती अने थोडा काळ पछी पण नहि होय तो ए चीजो हमणां तने ठीक क्यांथी थई गई?

हा, पण कोईने पति-पत्नी बे ज होय ने पत्नी मरी जाय तो पति एकलो पडी जाय के नहि?

आत्मा तो सदाय एकलो ज छे भाई! पत्नीथी तें ठीकपणुं मान्युं छे ए ज तारुं पागलपणुं छे. शुं थाय? हवे पोते कोण छे एनी खबर न मळे ने एम ने एम पागलनी जेम जिंदगी पूरी थई जाय!

अहीं कहे छे- अज्ञानी प्रत्यक्ष आलिखित एवां प्रगट-स्थूल अने स्थिर-निश्चल परद्रव्योना अस्तित्वथी ठगायो थको..... , जुओ, इन्द्रिय (आंख वगेरे) वडे शरीर, स्त्री, दीकरा, दीकरी ईत्यादिने सामे प्रत्यक्ष देखीने एने लईने हुं छुं, एनाथी मने ठीक छे-एम जे माने छे ते, कहे छे, ठगाई गयो छे. आ शरीर ठीक-निरोगी होय, पत्नी-दीकरा-दीकरी सेवा करतां होय, रहेवा मकान अनुकूळ होय, खावा-पीवानी सामग्री भरपुर होय, ने मित्रो-साथीओ खबर पूछनारा होय एटले मने ठीक पडे छे एम माननार परथी ठगाई गयो छे. अने एना विना मने ठीक नथी एम माननार पण ठगाई गया छे. अहा! आवा बधा परना होवापणाथी पोतानुं होवापणुं माने छे ने? वळी तेओ ते परद्रव्योने थोडो काळ स्थिर देखीने स्थिर माने छे ने? अहा! तेओ मोहवश ठगाई गया छे. केम? केमके परद्रव्यो कदी निज आत्मरूप थई शकता नथी ने तेओ पर्यायपणे स्थिर पण नथी. तेमनो संयोग रह्या ज करशे एवा तेओ स्थिर नथी. समजाणुं कांई....?

अहा! अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष एवुं जे पोतानुं अव्यक्त (इन्द्रिय-अप्रत्यक्ष) आत्मद्रव्य- त्रिकाळ ज्ञानानंदमय-तेने अज्ञानी मानतो नथी, तेने जाणवा-देखवानी कदी दरकार पण करतो नथी. आम पोताना आत्मद्रव्यना अस्तित्वने नहि देखतो, समस्तपणे शून्य थयो थको, जे बाह्य चीजोने जाणे छे ते ज हुं छुं एम माने छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-

घट पट आदि जाण तुं, तेथी तेने मान;
जाणनारने मान नहि, कहिए केवुं ज्ञान?

अहा! जाणनारनी हयातीमां-ज्ञानभूमिकामां आ बधी बाह्य चीजो देखीने, आ जाणनारो ते हुं छुं एम न मानतां, आ बाह्य चीजो ते हुं छुं एम मानीने, पोते शून्य- अभावरूप थयो थको अज्ञानी पोतानो नाश करे छे. अहो! मोहनो कोई गजब महिमा छे. आखुं जगत मोहथी मूर्च्छा पामी ठगाई रह्युं छे. आचार्यदेवे आखा जगतनो चितार खडो कर्यो छे.