Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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परिशिष्टः ४२१
* कळश २प२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एकांती बाह्य परद्रव्यने प्रत्यक्ष देखी तेनुं अस्तित्व माने छे, परंतु पोताना आत्मद्रव्यने इन्द्रियप्रत्यक्ष नहि देखतो होवाथी तेने शून्य मानी आत्मानो नाश करे छे.’

जुओ, आ शरीर, इन्द्रिय, वाणी, स्त्री-कुटुंब परिवार इत्यादि बधुं एने इन्द्रियो द्वारा प्रत्यक्ष जणाय छे तेथी तेनी हयाती माने छे. कर्म एने प्रत्यक्ष नथी देखातां. छतां एनुं फळ जे अनुकूळ-प्रतिकूळ संयोगो ते तेने देखाय छे तेथी कर्मनुं अस्तित्व-होवापणुं पण ते स्वीकारे छे. पण ए सर्वनो जाणनारो हुं ए सर्वथी न्यारो छुं एम ते स्वीकारतो नथी. अहाहा...! अंदर आनंदनुं धाम ज्ञानघन प्रभु पोते स्वपणे सत् विराजे छे छतां ते ईन्द्रियप्रत्यक्ष नथी तेथी तेने स्वीकारतो नथी. कांई नथी एम शून्य मानी अज्ञानी आ रीते पोतानो नाश करे छे. पर जीवने कोई बचावे के नाश करे ए तो आत्माना अधिकारनी वात नथी, पण अरेरे! अज्ञानी प्राणी, अंदर पूर्ण चैतन्यसत्तापणे स्वस्वरूपे पोते विराजे छे तोपण कांई नथी एम पोताने शून्य मानी पोतानो नाश करे छे. केवी विडंबना!

हवे कहे छे- ‘स्याद्वादी तो ज्ञानरूपी तेजथी पोताना आत्मानुं स्वद्रव्यथी अस्तित्व अवलोकतो होवाथी जीवे छे- पोतानो नाश करतो नथी.’

अहा! धर्मी-स्याद्वादी वर्तमान दशाने अंतरमां वाळीने पोते एक शुद्ध चैतन्यनी हयातीवाळुं तत्त्व छे एम स्वीकारे छे. तेथी ते जीवित छे, ते पोताने आपघातथी बचावे छे. परथी-रागथी हुं छुं एम मानतो अज्ञानी पोताना स्वद्रव्यनो ज निषेध करीने आपघात करे छे, मिथ्याभाव वडे पोताने मरणतोल करी नाखे छे; ज्यारे स्याद्वादी निजस्वरूपनो यथातथ्य स्वीकार करीने जिवित रहे छे, निराकुळ आनंदनुं जीवन जीवे छे. ल्यो, आवी वात छे.

आ प्रमाणे स्वद्रव्य-अपेक्षाथी अस्तित्वनो (-सत्पणानो) भंग कह्यो.

*

हवे छठ्ठा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-

* कळश २प३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पशुः’ पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, ‘दुर्वासना–वासितः’ दुर्वासनाथी (-कुनयनी वासनाथी) वासित थयो थको, ‘पुरुषं सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य’ आत्माने सर्वद्रव्यमय मानीने, ‘स्वद्रव्य–भ्रमतः परद्रव्येषु किल विश्राम्यति’ (परद्रव्योमां) स्वद्रव्यना भ्रमथी परद्रव्योमां विश्राम करे छे;.....