४२६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१० आदिनो शुभभाव आवे छे, आव्या विना रहेतो नथी. धर्मात्माने एवो ज धर्मानुराग होय छे, तथापि ते वडे धर्म-लाभ थवो ते मानता नथी.
नियत–व्यापार–निष्ठः’ भिन्न क्षेत्रमां रहेला ज्ञेयपदार्थोमां जे ज्ञेयज्ञायकसंबंधरूप निश्चित व्यापार तेमां प्रवर्ततो थको, ‘पुमांसम् अभितः बहिः पतन्तम् पश्यन्’ आत्माने समस्तपणे बहार (परक्षेत्रमां) पडतो देखीने (-स्वक्षेत्रथी आत्मानुं अस्तित्व नहि मानीने) ‘सदा सीदति एव’ सदा नाश पामे छे;....
जुओ, जेम तिर्यंचने चुरमु अने खड बे जुदी चीज छे एम भान-विवेक नथी, तेम अज्ञानीओने-एकांतीओने मकान, पैसा, शरीर आदि परद्रव्योनुं क्षेत्र भिन्न छे अने असंख्यप्रदेशी पोतानुं स्वक्षेत्र भिन्न छे एनो विवेक नथी. तेओ, अहीं कहे छे, पशु छे, पशु जेवा छे. मिथ्यात्वना खीले बंधाय छे ने! तेथी तेओ पशु छे. आवी वात भाई!
पोतानो जे एक ज्ञायकभाव छे ते स्वक्षेत्ररूप छे, अने परज्ञेयो बधा परक्षेत्ररूप छे. बन्ने भिन्न भिन्न छे. बन्ने वच्चे ज्ञेय-ज्ञायकपणानो व्यवहार संबंध हो, पण कांई ज्ञायक ज्ञेयरूप थई जतो नथी, ने ज्ञेयो ज्ञायकरूप थई जता नथी. आ वस्तुस्थिति छे. तोपण अज्ञानी प्राणी, परक्षेत्र-आकारे ज्ञाननी पर्याय थतां, आ मारी ज्ञान पर्याय छे एम न मानता, हुं परक्षेत्रमां चाल्यो गयो, ज्ञान परक्षेत्रमय थई गयुं-एम माने छे. अहा! पोते सदा प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप प्रभु छे. स्वपरने जाणवापणे थवुं ए एनो स्वभाव छे, तेथी सामे शरीर, बाग, बंगला ईत्यादि अनेक परक्षेत्रस्थित पदार्थो एना ज्ञानमां जणाय छे. ए जेमां जणाय छे ए स्वक्षेत्रमां रहेली ज्ञाननी अवस्थानो आकार छे, ए कांई परक्षेत्रनो आकार नथी. छतां अज्ञानी परक्षेत्रनुं ज्ञान थतां हुं बहार परक्षेत्रमां वह्यो गयो एम मानतो थको पोतानो नाश करे छे. समजाणुं कांई.......?
गिरनार, सम्मेदशिखर, शेत्रुंजो आदि तीर्थक्षेत्रे जाय त्यां ज्ञाननी पर्यायमां ए जणाय छे. ए जणातां अज्ञानी माने छे के मारी पर्याय ते क्षेत्रमय थई गई, अर्थात् ते ते क्षेत्रथी मारी पर्याय पवित्र थई गई. मने आ क्षेत्र वडे धर्मलाभ थयो. हवे परक्षेत्रथी पवित्रता ने लाभ थवा माने ते पोताने परक्षेत्ररूप करे छे. ते कहे छे- घेर बेठां बेठां कांई भगवान मळे? ए तो सिद्धक्षेत्रे जईए तो मळे. हवे आवा ने आवा मूढ भेगा थया छे बधा; परक्षेत्रथी पोतामां लाभ-धर्म थाय अने भगवान मळे एम