४२८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१०
धर्मी आत्मामां ज आकाररूप थयेलां ज्ञेयोमां निश्चित व्यापारनी शक्तिवाळो थईने टके छे-जीवे छे. एटले शुं? के पोताना स्वक्षेत्रमां ज उत्पन्न थयेली ज्ञान पर्यायमां परक्षेत्रनुं ज्ञान थवा छतां, हुं ज मारा ज्ञानमां छुं, मारा ज्ञानमां परक्षेत्रनो प्रवेश नथी- एम पोतामां-परक्षेत्रने जाणवारूप विशेषता थई तेना व्यापारनी शक्तिवाळो थईने पोते जीवे छे, नष्ट थतो नथी. बहु झीणुं भाई! परक्षेत्रने जाणवा छतां, पर्याय परनी नथी, मारा स्वक्षेत्रमां उत्पन्न थयेली मारी पर्याय छे, ते निज शक्तिना व्यापाररूप छे. ल्यो, आम निजशक्तिना व्यापारमां (निजशक्तिरूप परिणमनमां) रहीने धर्मी पोताना जीवनने टकावी राखे छे.
आ बोलो तो भाई! एकला सूक्ष्म न्यायथी भरेला छे. आमां कोई दाखलो नथी. पशु कहीने तो अज्ञाननुं भारे माठुं फळ बताव्युं छे, बाकी दाखलो नथी. अज्ञानी जीवो मिथ्यात्वना आवरणथी बंधाय छे ते पशु जेवा छे. एम के एमना परिणाम पशुना जेवा छे. ल्यो, आवी वात!
‘एकांतवादी भिन्न क्षेत्रमां रहेला ज्ञेयपदार्थोने जाणवाना कार्यमां प्रवर्ततां आत्माने बहार पडतो ज मानीने, (स्वक्षेत्रथी अस्तित्व नहि मानीने,) पोताने नष्ट करे छे;.........
अहाहा.....! शुं कीधुं? के एकांतवादी भिन्नक्षेत्रमां-परक्षेत्रमां रहेला शरीरादि ज्ञेयपदार्थोने जाणतां मारी पर्याय शरीरादिना परक्षेत्ररूप थई गई एम माने छे. परज्ञेयोने जाणवारूप आकारे पोतानी ज पर्याय थई छे एम न मानतां, जाणवापणे प्रवर्तता ज्ञानने-आत्माने बहार पडतो मानीने अज्ञानी पोताना अस्तिपणानो लोप करे छे, नाश करे छे. अहा! पोतामां जे परज्ञेयनुं ज्ञान थाय ते परने लईने छे एम माननार अज्ञानी पोताने परक्षेत्ररूप ज करे छे; ते स्वक्षेत्रनो नाश कल्पीने पोतानो नाश करे छे.
केटलाक कहे छे ने के-तीर्थक्षेत्रमां जईए तो शान्ति मळे, अहीं धंधाना स्थानमां तो अशान्ति ज अशान्ति रहे छे. तेने कहीए-भाई! तीर्थक्षेत्रे जाय तोय धूळेय शान्ति न मळे. तीर्थक्षेत्रेय भाई! तुं अनंतवार गयो, भगवानना समोसरणमां पण अनंतवार गयो, पण परक्षेत्रथी एकत्व ना गयुं तेथी बधुं ज फोगट गयुं. अज्ञानी परक्षेत्रथी लाभ थवानुं मानीने, तेने जाणतां परक्षेत्रमय थई जाय छे अने ए रीते पोताने ज नष्ट करे छे. समजाय छे कांई......?
भाई आ तो एकला मिथ्यात्व, अने तेना अभावरूप सम्यक्त्वनी वात छे. हवे कहे छे- ‘अने स्याद्वादी तो, परक्षेत्रमां रहेलां ज्ञेयोने जाणतां पोताना क्षेत्रमां