रहेलो आत्मा स्वक्षेत्रथी अस्तित्व धारे छे-एम मानतो थको टकी रहे छे-नाश पामतो नथी.’
शुं कीधुं? के परक्षेत्रनुं ज्ञान स्वक्षेत्रमां थवा छतां आत्मा पोताना ज क्षेत्रमां रहेतो, परक्षेत्ररूपे पोते थयो ज नथी एम जाणतो स्याद्वादी-धर्मी टकी रहे छे, नाश पामतो नथी. परक्षेत्रने जाणवा छतां पोते तो सदाय स्वक्षेत्रना अस्तित्वमय ज छे एम स्वक्षेत्रस्थित निजस्वरूपने जाणतो-अनुभवतो धर्मी जिवित रहे छे.
आ प्रमाणे स्वक्षेत्रथी अस्तित्वनो भंग कह्यो.
हवे आठमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-
‘पशु’ पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, ‘स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विध– परक्षेत्र–स्थित–अर्थं–उज्झनात्’ स्वक्षेत्रमां रहेवा माटे जुदा जुदा परक्षेत्रमां रहेला ज्ञेय पदार्थोने छोडवाथी, ‘अर्थैः सह चिद्–आकारान् वमन्’ ज्ञेय पदार्थोनी साथे चैतन्यना आकारोने पण वमी नाखतो थको (अर्थात् ज्ञेय पदार्थोना निमित्ते चैतन्यमां जे आकारो थाय छे तेमने पण छोडी देतो थको) ‘तुच्छीभूय’ तुच्छ थईने ‘प्रणश्यति’ नाश पामे छे;..........
शुं कहे छे? आ आत्मा पोताना असंख्यप्रदेशी स्वक्षेत्रमां पोताथी ज रहेलो छे. पोतानी पर्यायमां एने जे परक्षेत्रनुं ज्ञान थाय छे ए तो एनो पोतानो स्वभाव छे. परक्षेत्रने जाणवापणे ज्ञानाकार थयो ते स्वक्षेत्रस्थित पोतानी ज ज्ञाननी दशा छे; एमां कांई परक्षेत्र पेसी गयुं छे के पोते परक्षेत्रमां गयो छे एम नथी. आम वस्तुस्थिति होवा छतां, स्वक्षेत्रमां रहेवाना आशयथी, परक्षेत्रमां रहेला ज्ञेयपदार्थोनुं जे पोतानुं ज्ञान तेने छोडी दउं तो स्वक्षेत्रमां रही शकुं एम मानीने अज्ञानी-एकांतवादी ज्ञेय पदार्थोनी साथे चैतन्यना आकारोने-निज ज्ञानाकारोने पण वमी नाखे छे, छोडी दे छे. आ प्रमाणे ज्ञानाकारोथी तुच्छ थयो थको ते पोतानो नाश करे छे.
अहा! एकांती पोताना आत्माने द्रष्टिमां लेतो नथी. तेने संतो कहे छे- अरे भगवान! तुं तो तारा, असंख्यप्रदेशी स्वक्षेत्रमां ज रह्यो छुं ने! आ परक्षेत्रसंबंधी ज्ञान तो तारा ज्ञानस्वभावना कारणे थाय छे, परक्षेत्रना कारणे कांई ए थाय छे एम नथी, तारा क्षेत्रमां कांई परक्षेत्र-परज्ञेयो पेसी गया छे एम नथी; वा तारुं ज्ञान परक्षेत्रमय थई गयुं छे एम नथी. परक्षेत्रने जाणनारुं ज्ञान ते पोताना स्वप्रदेशमां थयेली पोतानी ज ज्ञाननी दशा छे. ल्यो, आवी वात! तोपण एकान्ती पोतानी ज्ञाननी