४३०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१० दशामां परक्षेत्र घूसी गयुं छे एम मानीने परक्षेत्रना निमित्ते थयेली पोतानी ज्ञानाकार पर्यायने छोडी दे छे अने ए रीते तुच्छ थयो थको पोतानो नाश करे छे. समजाणुं कांई......?
अहा! आवो मनुष्यनो भव (आवो अवसर) क्यारे मळे भाई? ने एमां तत्त्वज्ञाननी वार्ता सांभळवानुं क्यारे मळे? अरे भाई! अनंतकाळ तारो मिथ्यात्वने लईने नर्क-निगोदादिमां ज गयो छे. मिथ्यात्वना गर्भमां अनंता नर्क-निगोदना भव पडेला छे. पहेली नरकमां ओछामां ओछी स्थिति दस हजार वर्ष छे, ने सातमी नरकमां उत्कृष्ट स्थिति तेत्रीस सागरोपम छे. अरे! मिथ्यात्वने लईने दस हजार वर्षनी स्थितिए नरकमां अनंतवार ऊपज्यो छे. तेवी रीते दस हजार वर्षने एक समय, दसहजार वर्षने बे समय एम क्रमशः तेत्रीस सागरोपम पर्यंत वधती स्थितिए- प्रत्येक स्थितिए अनंतवार ऊपज्यो-मर्यो छे. अने निगोदमां तो त्यां ने त्यां अनंतकाळ पर्यंत अनंतां जन्म-मरण थया करे. अहा! तारा दुःखनी कथनी शुं करीए? तेथी कहीए छीए के आ मनुष्यभवनो एक समय पण महा मूल्यवान छे. तेनी आगळ कौस्तुभमणि पण कांई नथी. माटे आ अवसरमां तत्त्वद्रष्टि करी ले भाई!
अहीं हवे कहे छे - ‘स्याद्वादी तु’ अने स्याद्वादी तो ‘स्वधामनि वसन्’ स्वक्षेत्रमां रहेतो, ‘परक्षेत्र नास्तितां विदन्’ परक्षेत्रमां पोतानुं नास्तित्व जाणतो थको, ‘त्यक्त–अर्थः अपि’ (परक्षेत्रमां रहेला) ज्ञेय पदार्थोने छोडतां छतां ‘परान् आकार कर्षी’ ते परपदार्थोमांथी चैतन्यना आकारोने खेंचतो होवाथी (अर्थात् ज्ञेय पदार्थोना निमित्ते थता चैतन्यना आकारोने छोडतो नहि होवाथी) ‘तुच्छताम्–अनुभवति न’ तुच्छता पामतो नथी.
सामे अग्नि होय तो अहीं अग्निनुं ज्ञान थाय छे, परंतु ते अग्निना कारणे थाय छे एम नथी; ज्ञाननी दशामां ते काळे स्व-परनुं ने स्वनुं अग्निनुं ज्ञान पोताना सामर्थ्यथी थाय छे. अग्नि तो ते काळे निमित्त-बीजी चीज छे बस. परंतु अज्ञानी जाणे पोताना ज्ञानमां अग्नि घूसी गई छे एम मानी पोतानुं तत्संबंधी जे ज्ञाननी दशा तेने छोडी दे छे, ज्यारे स्याद्वादी-ज्ञानी तो निज असंख्यप्रदेशी स्वक्षेत्रमां रहेतो, परक्षेत्रथी पोतानुं नास्तित्व जाणतो परक्षेत्रथी लक्ष छोडतां छतां परक्षेत्रसंबंधी जे पोतानी ज्ञाननी दशा तेने पोतानी जाणे छे. अहा! परक्षेत्र-परज्ञेयसंबंधी जे पोतानो ज्ञानाकार ए तो पोताना ज स्वभावरूप छे एम जाणतो धर्मी तुच्छता पामतो नथी, नाश पामतो नथी. अर्थात् धर्मी बहार गमे ते क्षेत्रमां होय तोपण ते पोताना स्वक्षेत्रमां-आनंदमां ज रहे छे.
सम्मेदशिखर हो के गिरनार हो के शेत्रुंजय हो, धर्मी जाणे छे के ए परक्षेत्रथी नास्तिरूप छुं, भिन्न छुं. सम्मेदशिखरनां दर्शन थयां ए ज्ञाननी दशा पोतानी पोतामां