Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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परिशिष्टः ४३१

पोताथी थई छे, परक्षेत्रने कारणे ए उत्पन्न थई नथी. आ प्रमाणे यथार्थ जाणतो धर्मी पर पदार्थोने छोडतां छतां तेना निमित्ते प्रगट पोताना चैतन्य-आकारोने-ज्ञानाकारोने छोडतो नथी. ‘परपदार्थोमांथी चैतन्यना आकारोने खेंचतो होवाथी’ -एम कह्युं ने? मतलब के परपदार्थोना निमित्ते अहीं आत्मामां जे चैतन्यना आकारो प्रगट थया तेने छोडतो नहि होवाथी, तेने पोतामां ज पोतारूप राखतो होवाथी, तुच्छता पामतो नथी, नाश पामतो नथी अर्थात् स्वस्थित निराकुळ आनंदने अनुभवतो एवो जिवित रहे छे. समजाणुं कांई.....?

* कळश २पपः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘परक्षेत्रमां रहेला ज्ञेय पदार्थोना आकारे चैतन्यना आकारो थाय छे तेमने जो हुं पोताना करीश तो स्वक्षेत्रमां रहेवाने बदले परक्षेत्रमां पण व्यापी जईश-एम मानीने अज्ञानी एकांतवादी परक्षेत्रमां रहेला ज्ञेय पदार्थोनी साथे साथे चैतन्यना आकारोने पण छोडी दे छे; ए रीते पोते चैतन्यना आकारो रहित तुच्छ थाय छे, नाश पामे छे.’

जोयुं? शुं कीधुं? के परक्षेत्रना निमित्ते अहीं (आत्मामां) जे ज्ञान थाय तेने हुं पोतानुं मानुं तो परद्रव्यमां व्यापी जाउं. हुं परद्रव्यमय थई जाउं एम एकांत कल्पना वडे अज्ञानी परक्षेत्रने छोडतां साथे पोताना चैतन्य-आकारोने-ज्ञाननी दशाने पण छोडी दे छे. आ रीते ते पोते चैतन्यना आकारो रहित तुच्छ थयो थको नाश पामे छे.

ज्यारे, ‘स्याद्वादी तो स्वक्षेत्रमां रहेतो, परक्षेत्रमां पोतानी नास्तिता जाणतो थको, ज्ञेय पदार्थोने छोडतां छतां चैतन्यना आकारोने छोडतो नथी; माटे ते तुच्छ थतो नथी, नाश पामतो नथी.’

अहाहा....! स्याद्वादी-ज्ञानी तो परक्षेत्र जे शरीर, बाग-बंगला आदि तेमां हुं नास्ति छुं एम परक्षेत्रथी पोताने भिन्न जाणतो-अनुभवतो परक्षेत्रने छोडी दे छे, अर्थात् परक्षेत्रमां हुं नथी एम जाणे छे, पण परक्षेत्रसंबंधी जे पोतानुं ज्ञान छे एमां हुं छुं, अने ए मारुं छे एम जाणतो तेने छोडतो नथी. धर्मी पोते ज्यां ऊभो छे त्यां ते क्षेत्रने- परक्षेत्रने छोडवा छतां ते-संबंधी जे पोतानी ज्ञाननी दशा प्रगट थाय तेने छोडतो नथी, पोतानी जाणी राखे छे. तेथी ते तुच्छ थतो नथी, नाश पामतो नथी, जिवित रहे छे.

आ प्रमाणे परक्षेत्रनी अपेक्षाथी नास्तिनो भंग कह्यो.

*

हवे नवमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-

* कळश २प६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पशुः’ पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, ‘पूर्व–आलम्बित–बोध्य–नाश–समये