अन्यज्ञेयने लईने नथी. अहा! स्वपरने जाणवापणे प्रतिसमय परिणमे ए ज्ञाननुं आत्मानुं स्वरूप ज छे; पण अज्ञानी- एकांती तेम नहि मानतां, पूर्वे जाणवामां आवेला ज्ञेयो नाश पामतां मारुं ज्ञान नाश पामी गयुं एम माने छे; केमके एनी द्रष्टि पर उपर ज छे, परावलंबी छे. समजाणुं कांई....?
अहो! आ तो अनंता तीर्थंकरोना पेटनी रहस्यनी वात आचार्य भगवाने वहेती मूकी छे. एना प्रवाहनुं अमृत पीनारा पीने परमानंदने पामे छे, ने बाकीना तुच्छ अभावरूप थईने रखडी मरे छे.
हवे कहे छे-- ‘स्याद्वादवेदी पुनः’ अने स्याद्वादनो जाणनार तो ‘अस्य निज– कालतः अस्तित्वं कलयन्’ आत्मानुं निजकाळथी अस्तित्व जाणतो थको, ‘बाह्यवस्तुषु मुहुः भूत्वा विनश्यत्सु अपि’ बाह्य वस्तुओ वारंवार थईने नाश पामतां छतां पण, ‘पूर्णः तिष्ठति’ पोते पूर्ण रहे छे.
अहाहा...! स्याद्वादनो जाणनार अर्थात् वस्तुने अपेक्षाथी यथार्थ जाणनार तो, हुं स्वकाळथी अस्ति छुं, परकाळने लईने मारुं ज्ञान छे एम नथी, -अहाहा.....! एम जाणतो थको, वारंवार परवस्तुओ नाश पामवा छतां, ऊभो ज रहे छे, नाश पामतो नथी. कळशटीकामां कळश २प२ मां त्रिकाळी वस्तुने स्वकाळ कही छे, ने तेनी वर्तमान- वर्तमान वर्तती अवस्थाना भेदने, द्रव्यस्वभावनी अपेक्षा परकाळ कह्यो छे. अहाहा....! ज्ञानी कहे छे-मारी वर्तमान दशामां स्वतः पलटना थवा छतां हुं स्वकाळथी अस्तिरूप छुं, द्रव्यभावथी त्रिकाळ अस्तिरूप छुं, एक ज्ञायकभावमय छुं. आवी वात!
धर्मी जाणे छे के-सामे भगवान छे ते काळे भगवानने जाणवापणे ज्ञाननी दशा थई ते पोतानी पोताथी थई छे, भगवानने लईने थई नथी. अहाहा....! परकाळरूप पूर्वालंबित ज्ञेयपदार्थो जे ख्यालमां आवे छे ते पलटवा काळे पण हुं तो आ एक ज्ञायक ज छुं. आम आत्मानुं निजकाळथी अस्तित्व जाणतो, बाह्य वस्तुओ-ज्ञेयो भले समये समये पलटाय छतां, पोते पूर्ण रहे छे अर्थात् हुं तो ज्ञानानंद-पूर्णानंदस्वरूप ज छुं एम पोताने जाणे छे-अनुभवे छे. अहाहा! पोतानी ज्ञाननी दशा पोताना ज आलंबनथी उत्पन्न थई छे एम जाणतो धर्मी पोते पूर्ण रहे छे अर्थात् नाश पामतो नथी.
भाई! आ तारा घरनां निधान संतो तने देखाडे छे. बाकी ८४ ना अवतारमां कोई तने सहाय करे एम नथी. आ आत्माने एक ज्ञायक आत्मा ज शरण छे. अने अरिहंता शरणं, सिद्धां शरणं ईत्यादि कहीए ए ते व्यवहारथी छे; ए तो शुभभावमात्र छे. समजाणुं कांई.....?
‘पहेलां जे ज्ञेय पदार्थो जाण्या हता ते उत्तर काळमां नाश पामी गया; तेमने