Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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परिशिष्टः ४३९

‘स्याद्वादी तो परज्ञेयोना काळथी पोतानुं नास्तित्व जाणे छे, पोताना ज काळथी पोतानुं अस्तित्व जाणे छे; तेथी ज्ञेयोथी जुदा एवा ज्ञानना पुंजरूप वर्ततो थको नष्ट थतो नथी.’

अहाहा...! स्याद्वादी तो मारी दशा माराथी थई छे, परथी-निमित्तथी नहि एम यथार्थ जाणे छे. अहा! साक्षात् त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमात्मा हो, के गुरु के शास्त्र हो, मारी अवस्था एनाथी नास्तिपणे ज छे, एने लईने मारी दशा थई ज नथी-एम मानतो धर्मी पुरुष, स्वद्रव्यना आलंबने, आ हुं ज्ञानपुंज आत्मा छुं एम वर्ततो थको, जिवित रहे छे, नष्ट थतो नथी. अहाहा....! पोताना एक त्रिकाळी स्वभावनो आश्रय करीने तेमां एकाग्र थई प्रवर्ततो ज्ञानी पोताने जीवतो राखे छे, अर्थात् सत्यार्थ आनंदनुं जीवन जीवे छे. मारी अवस्था परथी छे एम पराश्रयमां ते प्रवर्ततो नथी.

प्रश्नः– तो क्षायिक समकित तीर्थंकर केवळी आदिनी समीपमां ज थाय एम शास्त्रमां आवे छे ते शुं छे?

उत्तरः– ए तो भाई! यथार्थ बाह्य निमित्तनुं ज्ञान करावनारुं निमित्तनी मुख्यताथी करेलुं व्यवहारनयनुं कथन छे. बाकी क्षायिक समकिती, केवळीनी समीपमां हुं छुं माटे क्षायिक समकित थयुं छे एम मानता नथी. ज्ञानपुंज प्रभु आत्मानी समीपता ज मुख्य छे, केवळीनी समीपता कहेवी ते व्यवहार छे. समजाणुं कांई....? भगवान केवळीने जे केवळज्ञाननी दशा प्रगटी ते आत्मानो पूर्ण आश्रय थतां प्रगटी छे; मनुष्यपणुं हतुं ने शरीरनां हाडकां मजबुत हतां, ने कर्म खसी गयां-नाश पामी गयां माटे प्रगटी छे एम नथी; छतां एम कहेवुं ए व्यवहार छे.

अहा! धर्मीने किंचित् राग होवा छतां रागमां धर्मी नथी, ए तो निरंतर पोताना ज्ञान ने आनंदमां छे, केमके ते आत्मानी समीप छे; ज्यारे अज्ञानी समोसरणमां बेठो होय तोय ए रागमां छे, केमके तेने आत्मा समीप नथी, ते तो परथी पोतानी अस्ति माने छे. समजाणुं कांई....?

आ प्रमाणे परकाळ-अपेक्षाए नास्तित्वनो भंग कह्यो.

*

हवे अगियारमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-

* कळश २प८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पशुः’ पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, ‘परभाव–भाव–कलनात्’ परभावोना भवनने ज जाणतो होवाथी, (ए रीते परभावोथी ज पोतानुं अस्तित्व मानतो होवाथी,)