४४४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१०
‘एकांतवादी परभावोथी ज पोतानुं सत्पणुं मानतो होवाथी बाह्य वस्तुओमां विश्राम करतो थको आत्मानो नाश करे छे;........’
जुओ, पशुनो अर्थ ज एकांतवादी कर्यो छे. अहा! पशु अर्थात् एकांतवादी जीव परभावोथी पोतानुं सत्पणुं-होवापणुं माने छे, अने एम मानतो थको बाह्य वस्तुओमां विश्राम करे छे. निमित्त आवे तो मारामां काम थाय एवी मान्यता वडे ते निमित्तोने ताकीने बेसे छे. अहर्निश निमित्तो मेळववामां ज उद्यमशील ते अंतःपुरुषार्थ -स्वभावना पुरुषार्थने खोई बेसे छे, अर्थात् तेने अंतः पुरुषार्थ जागृत थई शकतो नथी. निमित्तवादीने अंतःपुरुषार्थ संभवित नथी. केमके तेनुं चित सदा बहारमां ज रोकाएलुं रहे छे.
शास्त्रमां अकाळनयनी वात आवे छे. त्यां तो काळनी मुख्यता न करतां, काळनी साथे स्वभाव, पुरुषार्थ, निमित्त ईत्यादि जे बीजां समयवाय कारणो होय छे तेनी अपेक्षाए अकाळनय कह्यो छे. अकाळ एटले काळ नहि, काळ सिवायनां बीजां-एम बीजां समवाय कारणोनी अपेक्षा लईने अकाळनय कह्यो छे. बाकी प्रत्येक द्रव्यनी समय समयनी अवस्था तो जे समये जे थवानी होय ते ज थाय छे. भूत, भविष्य ने वर्तमान-त्रणे काळनी जेटली पर्यायो छे ए बधी पर्यायोना समुदायने द्रव्य कहे छे; अने जे काळे जे भावमांथी जे पर्याय आववानी होय ते ज आवे छे. भगवानना ज्ञानमां पण एम ज भास्युं छे के प्रगट थवाना सामर्थ्यरूप जे शक्ति छे ते शक्तिमांथी व्यक्ति-पर्याय समये समये प्रगटे छे. अज्ञानीने आनो विश्वास नथी तेथी परवस्तुओमां विश्राम करतो थको नाश पामे छे अर्थात् चतुर्गतिमां खोवाई जाय छे.
‘अने स्याद्वादी तो, ज्ञानभाव ज्ञेयाकार थवा छतां ज्ञानभावनुं स्वभावथी अस्तित्व जाणतो थको, आत्मानो नाश करतो नथी.’
अहाहा...! जोयुं? ज्ञेयाकार-ज्ञेय जणातां जे आकार थाय ते, ज्ञानी जाणे छे के मारा ज्ञाननो आकार छे, ज्ञेयनो नहि ने ज्ञेयने लईने पण नहि. ज्ञानभावनुं थवुं ते मारो सहज स्वभाव छे एम जाणतो अने स्वभावथी ज परिणमतो ज्ञानी पोताने नाश पामवा देतो नथी, जिवित राखे छे. अहा! आ चौद बोलमां तो आचार्यदेवे चौद गुणस्थानना भावो प्रगट कर्या छे. आचार्यदेवनी कोई अद्भुत शैली छे.
आ प्रमाणे स्व-भावनी (पोताना भावनी) अपेक्षाथी अस्तित्वनो भंग कह्यो.
हवे बारमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः-