४४६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१० पोतारूप-ज्ञायकरूप करे छे. अहा! मृगनी नाभिमां कस्तुरी होय छे, पण एनी एने खबर नथी, तेथी आ गंध बहारमांथी आवे छे एम जाणी ते बहार दोडधाम करे छे. तेम ज्ञान ने आनंद तो पोतानुं ज स्वरूप छे, पण अज्ञानीने तेनी खबर नथी. तेथी आ मारुं ज्ञान ने मारो आनंद आ परभावोमांथी आवे छे एम जाणी, जाणवामां आवता अनंता परद्रव्योना जे भाव तेमां आत्माना-पोताना होवापणानो अध्यास करीने ते सर्व परभावोने पोतारूप करे छे. तेथी तो आ देश मारो, ने आ गाम मारुं ने आ बंगलो मारो, आ स्त्री-पुत्र-परिवार मारां एम अज्ञानी प्रवर्ते छे. अरे भाई! ए सर्व वस्तु तो पर छे. एमां तारो आत्मा क्यांथी आवी गयो? पण शुं थाय? अज्ञानीने एवो ज चिरकालीन अध्यास छे तेथी ते पोताना शुद्ध चैतन्यभावथी भ्रष्ट थयो थको परभावोमां ज रमे छे.
अहा! परद्रव्योना भावोनुं परिणमन जाणवाकाळे ते (परभावोना) आकारे ज्ञान जे परिणम्युं ते पोतानुं ज्ञान छे अने ते एना स्वकाळे प्रगट थयुं छे. शुं कीधुं? परभावोने जाणनारुं ज्ञान जे अहीं (-आत्मामां) प्रगट थयुं ते एनो स्वकाळ छे, ते काळे ते स्वयं पोताथी थयुं छे. छतां एम न मानतां परभावोथी मने अहीं ज्ञान थयुं छे एम जे माने छे ते परभावोने पोतारूप करे छे. निमित्तथी उपादानमां (विलक्षणता) थाय एम जे माने छे ते पण परभावने पोतारूप करे छे; केमके पोतानी अवस्थामां परभावनुं जे ज्ञान थाय छे ते पोताथी थाय छे, परभाव छे तो थाय छे एम नथी. लोकालोक छे तो केवलज्ञान थाय छे एम नथी; केवळज्ञान पोताना स्वतंत्र परिणमनथी थाय छे. केवळज्ञाननी पर्यायनो कर्ता के साधन लोकालोक नथी. तेम आ शरीरादि छे तो एनुं ज्ञान थाय छे एम नथी. भाई! वीतरागनुं तत्त्व बहु सूक्ष्म छे भाई! आ चौद बोलमां तो बधां चौद ब्रह्मांड डहोळी नाख्या छे. (चौद ब्रह्मांडना भावो उकेल्या छे.)
प्रश्नः– तो पछी सामे जेवी चीज होय एवुं ज अहीं ज्ञान केम थाय छे? (एम के निमित्तथी नथी थतुं तो जेवी चीज-निमित्त होय एवुं ज ज्ञान केम थाय छे?)
उत्तरः– अहा! आत्मद्रव्यना भावनी एवी ज शक्ति-योग्यता छे. सामे जेवो परभाव-परज्ञेय निमित्तपणे होय एवुं ज जे ज्ञानमां आवे छे ते द्रव्यनी एवी ज तत्कालीन शक्ति-योग्यता छे तेथी आवे छे. आ तो आवो ज वस्तुनो-ज्ञाननो स्वभाव छे भाई! अज्ञानी निज शक्तिने समजतो नथी, ने परभावना कारणे पोतानुं ज्ञान (परिणमन) थाय छे एम मानी पोताना शुद्ध स्वभावथी च्युत-भ्रष्ट थाय छे. कह्युं ने अहीं के- ‘शुद्धस्वभावच्युतः अनिवारितः सर्वत्र अपि स्वैरं गतभयः क्रीडति’ अहाहा....!