बताव्यो अने ‘शुद्ध आत्मा एक ज छे’ एवुं कहेनार अन्यमतीओना व्यवच्छेद कर्यो. श्रुतकेवळी शब्दना अर्थमां, (१) श्रुत अर्थात् अनादिनिधन प्रवाहरूप आगम अने केवळी अर्थात् सर्वज्ञदेव कह्या, तेम ज (२) श्रुत-अपेक्षाए केवळी समान एवा गणधरदेवादि विशिष्ट श्रुतज्ञानधरो कह्या; तेमनाथी समयप्राभृतनी उत्पत्ति कही छे. ए रीते ग्रंथनी प्रमाणता बतावी अने पोतानी बुद्धिथी कल्पित कहेवानो निषेध कर्यो; अन्यवादी छद्मस्थ (अल्पज्ञानी) पोतानी बुद्धिथी पदार्थनुं स्वरूप गमे ते प्रकारे कही विवाद करे छे तेनुं असत्यार्थपणुं बताव्युं.
आ ग्रंथना अभिधेय, संबंध, प्रयोजन तो प्रगट ज छे. शुद्ध आत्मानुं स्वरूप ते अभिधेय छे. तेना वाचक आ ग्रंथमां शब्दो छे तेमनो अने शुद्ध आत्मानो वाच्यवाचकरूप संबंध ते संबंध छे. शुद्धात्माना स्वरूपनी प्राप्ति थवी ते प्रयोजन छे.
प्रवचन नंबर प–६ तारीख ३–१२–७प, ४–१२–७प
आचार्य कहे छे के हुं ध्रुव, (अहीं ध्रुव पर्यायनी-सिद्ध गतिनी वात छे) अचल अने अनुपम ए त्रण विशेषणोथी युक्त गतिने प्राप्त थयेल सर्व सिद्धोने - बधा सिद्धोने नमस्कार करीने ‘श्रुतकेवली भणितम्’ कहेतां भगवान श्रुतकेवळी अने केवळी बन्नेना कहेला आ समयसार नामना प्राभृतने कहीश.
अहीं संस्कृत टीकामां ‘अथ’ शब्द मंगळना अर्थने सूचवे छे. अनादिनो जे अज्ञानभाव तेनो द्रव्यना आश्रये नाश करी सम्यक्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान प्रगट कर्युं त्यां साधकभावनी शरूआत थई त्यांथी मांगळिक अने धर्मनी शरूआत थाय छे. अनंत काळथी द्रव्यना आश्रये जे साधकभावनी शरूआत थई न हती ते थई एनुं नाम मांगळिक छे. अथ प्रथमतः आ बे शब्दोथी शास्त्रनी शरूआत करी छे.
अमृतचंद्राचार्य महामुनि हता. समयसारनी जे आ टीका छे एवी टीका भरतक्षेत्रमां दिगंबर शास्त्रोमां बीजे क्यांय नथी. अन्य मतमां तो होय ज शानी? मुनि कोने कहेवा एनी लोकोने खबर नथी. मुनि तो परमेश्वर छे. जेने त्रण कषायनो अभाव थयो छे; बापु, ए शुं चीज छे! सम्यक्दर्शन पण एक अलौकिक चीज छे. तो पण चारित्र तो एथी य विशेष अलौकिक छे. आवा चारित्रवंत संतनी आ टीका छे. अमृतचंद्रनां आ अमृत वचनो छे, एकलां अमृत वरसाव्यां छे. संतो तो तीर्थंकर परमेश्वरना केडायतो छे. एमनी टीकामां शुं कहेवानुं होय?