Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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गाथा २७ ] [ १०९ करे छे ते मूढ, मिथ्याद्रष्टि, अज्ञानी छे. अरे भगवान! तने शुं थयुं छे आ? भाई! तारामां ए चीज छे नहि. परने तुं तारे के मारे ए तारा स्वरूपमां नथी. ए तो ते विकल्पथी (खोटुं) मान्युं छे.

जुओ शरीर, कर्म आदि अजीव-जड छे ए तो अण-उपयोगस्वरूपे छे. परंतु जे परना लक्षे उत्पन्न थाय छे एवा आ पुण्य-पापना विकल्प ए पण अण-उपयोगस्वरूप छे. छठ्ठी गाथामां आवे छे के ध्रुव त्रिकाळी ज्ञायकभाव कदी शुभाशुभभावोना स्वभावे थयो नथी. ज्ञायक वस्तु उपयोगस्वरूपे छे. ए अण-उपयोगस्वरूप शुभाशुभभावपणे थई नथी. आ दया, दान, भक्ति आदिना भावमां चैतन्यनो अंश नहि होवाथी ए सर्व रागादि भावो अण-उपयोगस्वरूप छे. तो पछी शरीर अने कर्मनी तो वात ज शी? अहीं कहे छे के उपयोग अने अनुपयोग जेमनो स्वभाव छे एवो ज्ञायक आत्मा अने शरीरादिने भिन्नपणुं छे, अनेकपणुं छे, एकपणुं नथी.

गाथा १७-१८ मां एम कह्युं के आबाळ-गोपाळ सौने ज्ञान ज अनुभवमां आवे छे, एटले शरीर अने राग संबंधीनुं जे ज्ञान छे ए ज्ञान ज जाणवामां आवे छे पण एम न मानतां हुं शरीरने जाणुं छुं, रागने जाणुं छुं एम एनुं लक्ष पर उपर जाय छे. ए मिथ्या भ्रम छे. आ जाणनारो जणाय छे अने राग अने शरीरने जाणनारुं ज्ञान राग अने शरीरनुं नथी पण ज्ञायकनुं छे. ए परज्ञेयनुं ज्ञान नथी पण त्रिकाळी भगवाननुं छे. आम ज्ञायक आत्मा अने शरीरादि परवस्तुने भिन्नपणुं छे, अनेकपणुं छे.

अरे! वस्तुनी द्रष्टि विना अनंतवार व्रत, तप, नियम करीने बिचारो मरी गयो (रखडयो). कह्युं छे ने (पुण्य-पाप अधिकार, गाथा १पर मां) के अज्ञानभावे व्रत, तप आदि करे ए बाळव्रत अने बाळतप छे. आहाहा! छ छ मासना उपवास करे, बब्बे महिनाना संथारा करे, झाडनी डाळनी जेम पडयो रहे पण निजस्वरूपने जाण्या विना ए बधुं बाळतप अने बाळव्रत छे. भगवान ज्ञाननी मूर्ति छे. एनी पर्यायमां जे जाणवुं थाय छे ए तो आत्मानी पोतानी पर्याय छे. ए खरेखर जाणनार ज्ञायकने जाणे छे एम न मानतां आने (पर शरीरादिने) जाणे छे एम पर उपर लक्ष जाय छे ए अज्ञान छे.

अनंतकाळथी शरीर अने रागने लक्ष करी जाणे छे. अने एने एकपणे माने छे. आ जाणनार, जाणनार, जाणनार जे छे ते हुं एम विचारवानी कोने पडी छे? बस, दुनियामां पांच-पचास लाखनी धूळ मळे एटले माने के लीला लहेर छे. आपणे हवे लखपति. परंतु बनारसीदास समयसार नाटकमां कहे छे के आत्मा ज्ञानस्वरूप छे एना लक्षनो पति आत्मा लक्षपति छे. आत्मानुं लक्ष थतां जे अतीन्द्रिय सहज आनंद थयो ए आनंदनो नाथ भगवान आत्मा लक्षपति छे. बनारसीदासना पद्यमां छे आः-