११० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२
ए दुनियाना लखपति-करोडपति ए तो धूळना पति धूळ-पति छे.
ज्यारे उपदेशमां दाननो, भक्तिनो, पूजानो अधिकार शास्त्रमां आवे त्यारे शुभभावनी वात आवे. रत्नकरंड श्रावकाचारमां दान आदिनो अधिकार विस्तारथी आवे छे. सम्यग्द्रष्टि होय, पैसा आदि संपत्ति होय तो एने रागनी मंदता करीने दानमां वापरे ए पुण्यनुं कारण छे. परंतु पैसानो लोभ राखी दानमां वापरे नहि तो पापनुं कारण छे. पद्मनंदि पंचविंशतिमां दान अधिकारमां पण आवे छे के-कागडो जेम उकडीआ-खीचडी तळिये दाझी होय ते तावेथाथी उखेडीने बहार कुंडीमां जे नाखे ते दाणा एकलो न खाय, पण का...का...का एम बोली बीजा कागडाओने बोलावीने खाय. तेम भगवान! तें पूर्वे जे शुभभाव कर्या त्यारे तारा आत्मानी शांति-वीतरागता दाझी हती. ते वेळा तने जे पुण्य बंधायां तेना फळमां आ लक्ष्मी आदि मळ्या छे ते एकलो वापरीश नहि, बीजाओने पण दानमां आपजे. नहिं तो तुं कागडामांथी य जईश. (उपदेशमां अधिकार प्रमाणे रागनी मंदतानी वात शास्त्रमां आवे पण तेथी मंद राग धर्म छे एम न समजवुं).
अहीं आचार्य भगवान ए स्पष्ट कहे छे के तुं कोण छे? आ जाणवा-देखवाना स्वभावथी भरेलो उपयोगस्वरूप ज्ञायक आत्मा छे ते तुं छे. तथा ज्ञानउपयोगथी खाली अण-उपयोगस्वरूप रागादि अने शरीरादि छे ते तुं नथी. आत्माने अने शरीरादिने आ रीते अत्यंत भिन्नपणुं छे. तेमने एकपदार्थपणानी प्राप्ति नथी तेथी अनेकपणुं ज छे. अनादिथी एकमेक मानी राख्युं छे ने? एने केम बेसे? पण भाई! शरीरना रजकण ते हुं अने एनाथी क्रिया थाय ते मारी थई एम जे माने ते भले कोई मोटो राजा होय, शेठ होय के मोटो त्यागी होय ए मूढ, मोटो मूर्ख छे.
आत्मा अने शरीर आकाशना एक क्षेत्रे रहेवाथी एक छे एम असद्भूत व्यवहार-नयथी कहेवामां आवे छे. (ए कथनमात्र छे.) बाकी भगवान आनंदनो नाथ चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा अने आ जड शरीर ए तद्न भिन्न भिन्न छे. एमने त्रणकाळमां एकपणुं नथी. आवो प्रगट नयविभाग छे. आ हालवा-चालवानी, बोलवानी इत्यादि क्रिया जडनी छे. एने आत्मा करी शक्तो नथी. जाणवुं, जाणवुं एम जे उपयोगस्वभाव छे ते आत्मा