गाथा २७ ] [ १११ छे. माटे व्यवहारनये ज शरीरना स्तवनथी आत्मानुं स्तवन बने छे. भगवाननुं स्तवन करतां भगवान शरीरे सूर्यना तेजथी पण अधिक तेजवाळा छे इत्यादि शरीरद्वारा जे स्तवन कर्युं ते आत्मानुं स्तवन नथी, शरीरनुं स्तवन छे. तेथी व्यवहारनयथी ज शरीरनुं स्तवन करवाथी आत्मानुं स्तवन कर्युं कहेवामां आवे छे, परमार्थे एम नथी.
‘व्यवहारनय तो आत्मा अने शरीरने एक कहे छे अने निश्चयनय भिन्न कहे छे. तेथी व्यवहारनये शरीरनुं स्तवन करवाथी आत्मानुं स्तवन मानवामां आवे छे. शरीर-माटी, धूळ, हाडकां, चामडां वगेरेथी भगवान आनंदनो नाथ प्रभु भिन्न छे. आत्मा जाणनार, जाणनार सच्चिदानंद प्रभु-सत् एटले शाश्वत ज्ञान अने आनंदनो कंद प्रभु छे. एने केम बेसे? कदीय बहारथी नजर फेरवीने अंदर जोवा नवरो थयो छे? जेम तपेलामां लापसी रंधाती होय अने लाकडां लीलां होय तेथी धूमाडो नीकळे. ए धूमाडामां तपेलामां लापसी देखाती नथी. तेम रागनी नजर करनारने रागनी आडमां रागथी भिन्न भगवान चिदानंद प्रभु देखातो नथी, अरे! पुण्य अने पाप, दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि विकारी भावने देखनारो ए बधाथी जुदो छे एनी अज्ञानीने अनादिकाळथी खबर नथी. तेथी भवभ्रमण करी रह्यो छे.
[प्रवचन नं. ६८ * दिनांक ६-२-७६]