मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवली भयवं।। २८ ।।
मन्यते खलु संस्तुतो वन्दितो मया केवली भगवान्।। २८ ।।
आ ज वात हवेनी गाथामां कहे छेः-
माने प्रभु केवळीतणुं वंदन थयुं, स्तवना थई. २८.
गाथार्थः– [जीवात् अन्यत्] जीवथी भिन्न [इदम् पुद्गलमयं देहं] आ पुद्गलमय देहनी [स्तुत्वा] स्तुति करीने [मुनिः] साधु [मन्यते खलु] एम माने छे के [मया] में [केवली भगवान्] केवळी भगवाननी [स्तुतः] स्तुति करी, [वन्दितः] वंदना करी.
टीकाः– जेम, परमार्थथी श्वेतपणुं सुवर्णनो स्वभाव नहि होवा छतां पण, चांदीनो गुण जे श्वेतपणुं, तेना नामथी सुवर्णनुं ‘श्वेत सुवर्ण’ एवुं नाम कहेवामां आवे छे ते व्यवहारमात्रथी ज कहेवामां आवे छे; तेवी रीते, परमार्थथी शुकल-रकतपणुं तीर्थंकर-केवळीपुरुषनो स्वभाव नहि होवा छतां पण, शरीरना गुणो जे शुकल-रकतपणुं वगेरे, तेमना स्तवनथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं ‘शुकल-रकत तीर्थंकर-केवळीपुरुष’ एवुं स्तवन करवामां आवे छे ते व्यवहारमात्रथी ज करवामां आवे छे. परंतु निश्चयनये शरीरनुं स्तवन करवाथी आत्मानुं स्तवन बनतुं ज नथी.
भावार्थः– अहीं कोई प्रश्न करे के व्यवहारनय तो असत्यार्थ कहृाो छे अने शरीर जड छे तो व्यवहारना आश्रये जडनी स्तुतिनुं शुं फळ छे? तेनो उत्तरः- व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नथी, निश्चयने प्रधान करी असत्यार्थ कहृाो छे. वळी छद्मस्थने पोतानो, परनो आत्मा साक्षात् देखातो नथी, शरीर देखाय छे, तेनी शांतरूप मुद्राने देखी पोताने पण शान्त भाव थाय छे. आवो उपकार जाणी शरीरना आश्रये पण स्तुति करे छे; तथा शान्त मुद्रा देखी अंतरंगमां वीतराग भावनो निश्चय थाय छे ए पण उपकार छे.