ज्ञानी तो स्वभावनी अस्तिनी मस्तीमां रहेतो, परभावरूपभवनना त्यागनी द्रष्टिने लीधे निष्कंप वर्ततो थको, शुद्ध ज विराजे छे, अर्थात् शुद्धने एकने ज अनुभवे छे.
‘एकांतवादी सर्व परभावोने पोतारूप जाणीने पोताना शुद्ध स्वभावथी च्युत थयो थको सर्वत्र (सर्व परभावोमां) स्वेच्छाचारीपणे निःशंक रीते वर्ते छे;.........’
जोयुं? शुं कहे छे? के एकांतवादी अर्थात् एक ज पक्षने ग्रहण करनारो बहिरात्मा सर्व परभावोने पोतारूप जाणे छे. आ शरीर मारुं, ने बायडी-छोकरां मारां, ने मकान मारुं ने पैसा मारा-एम सर्व परभावोने ते पोतारूप जाणे छे.
हा, पण करे शुं? पैसा विना तो कांई ज मळतुं नथी. एना विना तो क्षण पण न चाले.
समाधानः– अरे भाई! पैसा विना क्षण पण न चाले ए तारी मान्यता ठीक नथी; केमके पैसानो तो तारा आत्मामां त्रिकाळ अभाव छे. पैसा विना ज भाई! तुं सदाय जीवी-टकी रह्यो छो. जेणे पैसा विना न चाले एम मान्युं छे एणे पैसाथी ज पोतानुं टकवुं मान्युं छे, पण ए तो भ्रम छे. वळी पैसाथी सामग्री आवे छे एम मानवुं ए पण भ्रम छे. सामग्री-संयोग तो (कर्मोदय निमित्ते) पोताना काळे पोताथी आवे छे, ने पोताना काळे पोताथी जती रहे छे. वळी ए सामग्री ने पैसा -ए बधुं तारामां छे क्यां? ए तो त्रिकाळ भिन्न ज छे. आत्मा त्रणे काळ परभावोथी रहित ज छे. ए तो अज्ञानी भ्रमथी परभावोने पोतारूप जाणे छे. पण एथी तो ए शुद्ध स्वभावथी भ्रष्ट थयो थको परभावोमां स्वेच्छाचारे प्रवर्ततो नाश पामे छे, अर्थात् संसारमां डूबी मरे छे.
पण शरीर सारुं होय तो तपश्चर्या थाय ने?
धूळेय न थाय सांभळने, शरीर तो जड छे. ज्यां शरीर ज तारुं नथी त्यां शरीरथी तपश्चर्या थाय ए क्यांथी लाव्यो? भाई! तपश्चर्या तो अंदर स्वरूपमां जाय ने त्यां तपे प्रतापवंत रहे तो थाय. बाकी शरीरथी तप कर्युं कहीए ए तो निमित्तना कथन सिवाय कांई नथी.
हवे कहे छे- ‘अने स्याद्वादी तो, परभावोने जाणतां छतां, पोताना शुद्ध ज्ञानस्वभावने सर्व परभावोथी भिन्न अनुभवतो थको शोभे छे.’
अहाहा....! अंदर मारी चीज-शुद्ध चैतन्यवस्तु तो परभावना अभावस्वरूप ज