४प४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१० आदिमां चढी गया. कोई शरीरना जोरवाळा उपवास आदिमां चढी गया, तो कोई धनना जोरवाळा दान ने भोग आदिमां चढी गया, तो कोई मनना जोरवाळा विवादमां पडी एकान्त जाणपणामां चढी गया; परंतु अंदर वस्तु छे तेनी द्रष्टि करी नहि. अहीं कहे छे- भगवान आत्मामां एकरूपता देखवाना अभिलाषी जीवो चैतन्यनी प्रगट थती पर्यायोथी जुदो ध्रुव शोधवा जाय छे, पण ते नजरमां आवतो नथी केेमके एवो ध्रुव आत्मा कोई वस्तु ज नथी. अहाहा....! एकांत ध्रुवने माननारा हुं एक छुं, अभेद छुं, ध्रुव छुं-एम जाणे छे तो पर्यायथी, पण पर्याय छे एम मानता नथी तेथी तेओ मिथ्याद्रष्टि छे, तेमने ध्रुव तत्त्वनी उपलब्धि कदीय थती नथी. समजाणुं कांई.......?
अनित्यतां परिमृशन’ चैतन्य वस्तुनी वृत्तिना (-परिणतिना, पर्यायना) क्रम द्वारा तेनी अनित्यताने अनुभवतो थको, ‘नित्यं ज्ञानं अनित्यता–परिगमे अपि उज्जवलम् आसादयति’ नित्य एवा ज्ञानने अनित्यताथी व्याप्त छतां उज्ज्वळ (-निर्मळ) माने छे- अनुभवे छे.
अहाहा! भगवान आत्मा ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि जेनो स्वभाव छे एवो ज्ञानानंद-नित्यानंद प्रभु अस्तिरूप महापदार्थ छे. एनी वर्तमान दशा क्रमथी थाय छे. पर्यायनुं लक्षण ज क्रमवर्तीपणुं छे. क्रमवर्ती एटले शुं? पर्याय पलटीने बीजी थाय मात्र एम नहि, परंतु पलटीने जे काळे जे थवानी होय ते ज थाय. प्रवचनसारमां मोतीना हारनो दाखलो आप्यो छे. जेम १०८ मोतीनो हार होय तेमां बधांय १०८ मोती-प्रत्येक पोतपोताना स्थानमां प्रकाशे छे. तेमां कोई आडुं-अवळुं के आगळ-पाछळ करवा जाय तो हार तूटी जाय. तेम आत्मामां त्रिकाळवर्ती सर्व पर्यायो-प्रत्येक पोतपोताना स्थानमां (- स्वकाळमां) प्रकाशे छे. एटले शुं? के जे अवस्था जे काळे प्रगट थवानी होय ते काळे ते ज प्रगट थाय. कोई आगळ-पाछळ के आडी-अवळी न थाय. आवुं पर्यायोनुं क्रमवर्तीपणुं धर्मी जाणे छे तेथी क्रम द्वारा तेनी अनित्यताने जाणतो थको, वस्तु जे नित्य छे ते अनित्यताथी व्याप्त होवा छतां, तेने उज्ज्वळ-निर्मळ अनुभवे छे, वस्तु वस्तुपणे त्रिकाळी नित्य होवा छतां धर्मी पुरुष पर्यायमां अनेकरूपता क्रमसर थाय छे तेने जाणे छे, अने छतां अनेक अवस्थाओ छे माटे हुं अनेकरूप, मलिन, अशुद्ध थई गयो एम नहि मानतो थको ते नित्य शुद्ध आत्मस्वरूपने अनुभवे छे.
भाई! वस्तु जे नित्य छे ते ज अनित्य छे, ने जे अनित्य छे ते ज नित्य छे- आवुं प्रमाणज्ञान ज्यां सुधी न थाय त्यां सुधी पर्यायमां निर्मळता-धर्म प्रगट थतो नथी.
धर्मी जीव आत्मानी वर्तमान दशामां क्रमवर्तीपणे जे अनित्यता वर्ते छे तेने जाणतो थको, अवस्थामां एक पछी एक पर्याय थाय छे एनाथी सहित होवा छतां,