४प६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-१० छे. स्याद्वादी वस्तुमां रहेला ध्रुव ने अध्रुव बन्ने धर्मने माननारो छे. वस्तुपणे तो आत्मा अनादि-अनंत त्रिकाळ ध्रुव ज छे. वस्तु अपेक्षा एने कोईए उपजाव्यो नथी. सत् छे ने? एने कोण उपजावे? अने सत्नो नाश केवो? सत् तो त्रिकाळ सत् ज छे. आम वस्तुपणे नित्य छे तोपण क्रमेक्रमे उपजती-विणसती चैतन्यनी अवस्थाओनी अपेक्षा ज्ञान-आत्मा अनित्य पण छे. आवो ज वस्तुनो स्वभाव छे. स्याद्वादी एने यथार्थ जाणतो थको नित्यस्वभावना आलंबननी द्रष्टि वडे जिवित रहे छे-नाश पामतो नथी आवी वातु छे.
‘पूर्वोक्त रीते अनेकान्त, अज्ञानथी मूढ थयेला जीवोने ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करी दे छे- समजावी दे छे’ एवा अर्थनुं काव्य हवे कहेवामां आवे छेः-
‘इति’ आ रीते ‘अनेकान्तः’ अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद ‘अज्ञान–विमूढानां ज्ञानमात्रं आत्मतत्त्वं प्रसाधयन्’ अज्ञानमूढ प्राणीओने ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करतो ‘स्वयमेव अनुभूयते’ स्वयमेव अनुभवाय छे.
जुओ, अहीं अनेकान्तनो अर्थ स्याद्वाद कर्यो छे. वास्तवमां अनेकान्त वस्तुनुं स्वरूप छे, अने स्याद्वाद वस्तुना अनेकान्त स्वरूपनो (द्योतक) बतावनारो छे. ‘स्यात्’ कहेतां अपेक्षाओ (जे धर्म वस्तुमां होय ते अपेक्षाए) वाद कहेतां वचन-कथन. आ रीते स्याद्वाद ते अनेकान्तस्वरूप वस्तुने कहेनारी वचन-पद्धति छे. जेमके-आत्मा नित्य छे तो कथंचित्-द्रव्य अपेक्षाए नित्य छे; आत्मा अनित्य छे तो कथंचित्-पर्याय अपेक्षाए अनित्य छे. आम स्याद्वाद, अपेक्षाथी कथन करीने अनेकान्त-वस्तुने सिद्ध करे छे, वस्तुना यथार्थ स्वरूपने बतावे छे.
अहीं कहे छे-आ रीते अनेकान्त, अज्ञानथी विमूढ प्राणीओने, ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वने प्रसिद्ध करतो स्वयमेव अनुभवाय छे. अहाहा....! हुं स्वस्वरूपी- ज्ञानस्वरूपथी छुं ने पररूपथी नथी एम तत्-अतत् आदि धर्मो द्वारा अनेकान्त, अज्ञान- मूढ प्राणीओने ज्ञानमात्र आत्मा प्रसिद्ध करे छे एम स्वयमेव अनुभवाय छे. अहाहा...! अनेकान्तने जाणतां स्वस्वरूपवस्तु आत्मा स्वयमेव-पोतावडे ज अनुभवमां आवी जाय छे. वस्तुने-आत्माने जाणवारूप पर्याय स्वयमेव-पोताथी ज परिणमी जाय छे. हवे आमां लोकोने (-केटलाकने) ‘स्वयमेव’ शब्दना वांधा छे. एम के ‘स्वयमेव’ नो अर्थ पोते पोताथी ज एम नहि, पण पोतारूप-चेतन चेतनरूप ने जड जडरूप-परिणमे -एम लेवो जोईए. पण ए बराबर नथी. ‘स्वयमेव’ कहीने अहीं पोताथी ज, परथी नहि एम निश्चय कराववो छे.