तो ज्ञानमात्र वस्तु आपोआप अनेक धर्मयुक्त प्रत्यक्ष अनुभवगोचर थाय छे. अहाहा....! हुं स्वथी छुं ने परथी नथी, ज्ञानस्वरूपथी छुं ने परज्ञेयथी नथी एम यथार्थ वस्तु-स्वरूप जाणीने नित्य, ध्रुव, ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थई परिणमतां आत्मानो अनुभव थाय छे, अने त्यारे तेमां ज्ञाननी, आनंदनी, श्रद्धानी, स्थिरतानी आदि अनेक पर्यायो प्रत्यक्ष वेदनमां आवे छे; केमके प्रत्यक्ष थवुं, स्वानुभूतिमां जणावुं एवो ज भगवान आत्मानो स्वभाव छे. अहाहा...! वस्तु-आत्मा स्वानुभवगोचर थतां हुं द्रव्यरूपथी एक छुं, पर्यायथी अनेक छुं एम ज्ञानमां यथार्थ भासे छे.
हवे कहे छे- ‘माटे हे प्रवीण पुरुषो! तमे ज्ञानने तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, एकस्वरूप, अनेकस्वरूप, पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी सत्स्वरूप, परना द्रव्य-क्षेत्र- काळ-भावथी असत्स्वरूप नित्यस्वरूप, अनित्यस्वरूप इत्यादि अनेकधर्मस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवगोचर करी प्रतीतिमां लावो. ए ज सम्यग्ज्ञान छे.’
अहाहा....! जाणवानी दशामां आ रीते (अनेकान्तस्वरूप जाणीने) शुद्ध एक आत्मद्रव्यनुं लक्ष करी (ध्याननुं ध्येय बनावी) अनुभवगोचर करी प्रतीति करो-एम कहे छे. वस्तु अनुभवगोचर थईने प्रतीतिमां आवे त्यारे एनी सम्यक् प्रतीति अने सम्यग्ज्ञान थाय छे एम वात छे. तेथी प्रथम एने ख्यालमां लई स्वानुभवप्रत्यक्ष द्वारा निःसंदेह प्रतीति करो एम कहेवुं छे. अहाहा...! प्रत्यक्ष स्वानुभवनी दशामां नित्यनो निर्णय थतां ज एने नित्य अने अनित्य बन्ने धर्मो सिद्ध थई जाय छे. आनुं नाम ज सम्यग्ज्ञान छे.
‘सर्वथा एकांत मानवुं ते मिथ्याज्ञान छे.’ एक पक्षने ज एकांते ग्रहण करवो ते मिथ्याज्ञान छे. उपादानथीय थाय ने निमित्तथीय थाय एम एकांत ग्रहण करवुं ते मिथ्याज्ञान छे, झेर छे भाई! अनेकान्तमां अमृतनो स्वाद छे, ने एकांत तो झेरनो स्वाद छे भाई! समजाणुं कांई.....?
‘पूर्वोक्त रीते वस्तुनुं स्वरूप अनेकान्तमय होवाथी अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद सिद्ध थयो’ एवा अर्थनुं काव्य हवे कहेवामां आवे छेः-
‘एवं’ आ रीते ‘अनेकान्तः’ अनेकान्त- ‘जिनं अलङ्गयं शासनम्’ के जे जिनदेवनुं अलंघ्य (कोईथी तोडी न शकाय एवुं) शासन छे ते ‘तत्त्व–व्यवस्थित्या’ वस्तुना यथार्थ स्वरूपनी व्यवस्थिति (व्यवस्था) वडे ‘स्वयं स्वं व्यवस्थापयन्’ पोते पोताने स्थापित करतो थको ‘व्यवस्थितः’ स्थित थयो-निश्चित ठर्यो-सिद्ध थयो.