Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ घर नथी. ए बधां छे खरां, पण ए तारा स्वरूपमां-घरमां नथी. अहा! ए बधाने जाणवाकाळे तारुं ज्ञान वास्तवमां ज्ञानने ज जाणे छे, अने ते ज्ञान तारुं निजस्वरूप छे, स्वलक्षण छे. अहा! ए ज्ञानलक्षणने-वर्तमान ज्ञाननी दशाने त्यां अंदरमां वाळतां आनंदनो सागर ज्ञानमूर्ति प्रभु आत्मा निर्विकल्पपणे (पर्यायमां) सिद्ध थाय छे-प्रगट थाय छे. आने भगवान सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान कहे छे. भाई! भवरोग मटाडवानो आ उपाय छे; बाकी तो बधां थोथां छे.

गुजरातमां दलपतराम एक कवि थई गया. तेमना काव्यमां एक कडी आवे छे के-
“प्रभुता प्रभु तारी तो खरी, मुजरो मुज रोग ले हरी.”

भगवान, तारी प्रभुता तो हुं त्यारे मानु के मारो भवरोग तुं दूर करे. ए तो कवि ईश्वरने कर्तापणे स्वीकारीने वात करे छे. अहीं ए वात नथी. अहीं कहे छे-लक्ष्य एवो आत्मा अंदर पोते ज प्रभु छे. अहाहा...! ज्ञानलक्षण वडे एने अंतर्मुख थई ओळखतां एनो भवरोग टळी जाय छे. भाई! अहीं तो पोतानो प्रभु पोते ज छे. कयांय बहारमां ढूंढवानी जरूर नथी-एम वात छे. समजाणुं कांई...? नाटक समयसारमां आवे छे के-मेरो धनी नहि दूर दिसंतर, मोही मैं है मोहि सूझत नी कै।।

अहाहा...! आवो अनंत अनंत प्रभुतानो भरेलो ईश्वरस्वरूप भगवान आत्मा प्रसाध्यमान छे, अने ते प्रसिद्ध थाय छे. जुओ, शिष्यनो प्रश्न हतो ने के-वस्तुपणे आप (लक्ष्य-लक्षण) एक कहो छो तो एकमां लक्ष्य- लक्षणना बे भेद आपे केम कह्या? तेनो आ उत्तर दीधो के-जाणवुं... जाणवुं एवुं ज्ञाननुं जे प्रगटपणुं ते अंतरमां वळतां अनंतगुणनो पिंड चिदानंद ध्रुव प्रभु प्रसिद्ध थाय छे. आ समजाववा माटे जिज्ञासु प्रति अमे लक्ष्य-लक्षणनो विभाग कह्यो छे; बाकी तो लक्षण-ज्ञान अने लक्ष्यआत्मा एक-अभेद ज छे; अने बन्नेनुं अभेदपणुं ज ईष्ट छे. (भेद इष्ट नथी.)

हवे कहे छे-‘माटे ज्ञानमात्रमां अचलितपणे स्थापेली दृष्टि वडे, क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्ततो, तद्- अविनाभूत अनंतधर्मसमूह जे कांई जेवडो लक्षित थाय छे, ते सघळोय खरेखर एक आत्मा छे.’

जोयुं? अहीं क्रमरूप अने अक्रमरूप बधुंय लीधुं. क्रमरूप तो समये समये क्रमथी प्रगट थती निर्मळ पर्यायो छे, ने अक्रमरूप द्रव्यमां अन्वयपणे साथे रहेनारा अनंत गुणो छे. अहाहा...! ए बधाय ज्ञानमात्र भावमां अभेदपणे समाई जाय छे. अहीं क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्ततो-एम कह्युं त्यां ए दृष्टिनो विषय छे एम नथी लेवुं; अहीं तो अंतरमां ज्ञानमात्र एक अभेद वस्तु-आत्मामां ज्यां अचलितपणे दृष्टि स्थापित थई त्यां क्रम-अक्रमरूप प्रवर्ततो ज्ञानथी अविनाभावी संबंधवाळो अनंत धर्मसमूह एवो आत्मा लक्षित थाय छे. आ प्रमाण ज्ञाननो विषय छे. अहीं ज्ञानथी अविनाभावी संबंधवाळो-एम कह्युं ने! मतलब के ज्ञान साथे द्रव्यने अविनाभावी एकपणानो संबंध छे. ज्यां पर्यायमां ज्ञान प्रगट थाय छे त्यां ज्ञाननी साथे आत्मामां अभेदपणे रहेला अने ज्ञानमां प्रतिभासित थता अनंतगुणनी निर्मळ पर्यायो प्रगट थाय छे. अहीं क्रममां निर्मळ पर्यायो लेवी छे, राग-व्यवहार नहि, केमके राग-व्यवहार ते आत्मा नथी, तेनो आत्मामां अभाव छे. (शक्तिना आ अधिकारमां विकारी पर्यायोने आत्मा गणी नथी). अहाहा...! लक्षणभूत ज्ञाननी पर्याय द्वारा ज्यारे प्रसाध्यमान आत्मा प्रसिद्ध थयो-अनुभवमां आव्यो त्यारे ए क्रमे प्रवर्तती पर्यायो ने अक्रमे रहेला गुणो-ए सहित आखो आत्मा ज्ञानमां प्रमेय थाय छे अने आ प्रमाणज्ञान छे. ज्ञानलक्षण वडे ज्ञानमात्रने लक्षमां लेतां एकलुं ज्ञान जुदुं लक्षित थाय छे एम नहि, पण ज्ञान साथे रहेला अनंत धर्मोना समूहरूप आखुं द्रव्य लक्षित थाय छे अने ते आत्मा छे एम कहे छे. समजाणुं कांई...?

सूक्ष्म वात छे भाई!छेल्ले आ परिशिष्ट छे ने! कहेलुं कहेवुं, नहि कहेलुं पण कहेवुं अने थोडामां बधुं कहेवुं एनुं नाम परिशिष्ट. एमां आ शिष्यनो प्रश्न हतो ने?के लक्ष्य-लक्षणना आपे बे भेद केम पाडया? एने कहे छे के- वस्तुपणे बे भेद नथी, अर्थात् बे वस्तु नथी. ज्ञाननी साथे द्रव्यने एकपणुं छे, अविनाभावीपणुं छे. एटले के ज्यां ज्ञान छे त्यां (अनंतधर्ममय) आत्मवस्तु छे, ने ज्यां आत्मवस्तु छे त्यां ज्ञान छे; क्षेत्रभेद नथी, काळभेद पण नथी. ज्ञान अने आत्मा अर्थात् लक्षण अने लक्ष्य वस्तुपणे अभेद-एक छे, ए तो समजाववा माटे लक्ष्य-लक्षणनो भेद पाडयो छे; बाकी बन्ने एक छे. आत्माने लक्षमां लईने ज्ञान तद्रूप-अभेद परिणम्युं त्यारे आत्मा लक्ष्य थयो अने ज्ञान तेनुं लक्षण थयुं. बाकी लक्ष्य-लक्षण एक अभेद छे अने बन्ने एकसाथे ज प्रसिद्ध थाय छे.

तो भेद तो नकामो ठर्यो?