Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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परिशिष्टः ७

भाई! ज्यां सुधी एकला भेद उपर ज दृष्टि छे त्यां सुधी ते निरर्थक-नकामो ज छे, केमके भेददृष्टिमां तो विकल्पनी-रागनी ज प्रसिद्धि थाय छे, आत्मानी नहि. पण ज्यां भेदने गौण करी, भेदथी हठी ज्ञान अभेदमां ढळे त्यां आत्मप्रसिद्धि थाय छे, अने त्यारे भेदने व्यवहारथी साधन कहेवाय छे. आवी वात छे. भेदरूप व्यवहार होय छे खरो, पण ते व्यवहार नाम त्यारे ज पामे छे ज्यारे अभेदनी सिद्धि थाय छे; अन्यथा ते निरर्थक-नकामो ज छे. समजाणुं कांई...?

ल्यो, आ कारणे अहीं आत्मानो ज्ञानमात्रपणे व्यपदेश छे. अहो! आवी वाणी सर्वज्ञदेव अने सर्वज्ञना केडायती संतो सिवाय बीजे कयांय नथी. ‘प्रश्नः– जेमां क्रम अने अक्रमे प्रवर्तता अनंत धर्मो छे एवा आत्माने ज्ञानमात्रपणुं कई रीते छे?’ जुओ, शिष्य फरी पूछे छे के-प्रभो! भगवान आत्माए अक्रमरूप अनंत गुणो अने क्रमे प्रवर्तती तेनी अनंत पर्यायो धारी राखी छे, छतां एवा आत्माने आप ज्ञानमात्र कई रीते कहो छो? प्रश्न समजाय छे? भगवान आचार्यदेवे आत्मा ज्ञानमात्र छे एम जोर आपीने कह्युं तो शिष्य आशंका करी पूछे छे-प्रभु! आत्मा एकलो ज्ञानमात्र तो नथी; एमां तो अनंती निर्मळ पर्यायो क्रमसर थाय छे, अने अनंता गुणो एकसाथे रहेला छे; तो पछी आत्माने ज्ञानमात्र कहेतां तेमां अनंता गुण अने क्रमे प्रवर्तती अनंती निर्मळ पर्यायो केवी रीते समाय छे? अहीं आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा अर्थात् देखवा-जाणवापणे छे एम लेवुं छे; एटले शुभाशुभ विकारनी अहीं वात लेवी नथी, केमके शुभाशुभ भाव ए आत्मानी चीज नथी. समजाणुं कांई...?

उत्तरः– परस्पर भिन्न एवा अनंत धर्मोना समुदायरूपे परिणत एक ज्ञप्तिमात्र भावरूपे पोते ज होवाथी (अर्थात् परस्पर भिन्न एवा अनंत धर्मोना समुदायरूपे परिणमेली जे एक जाणनक्रिया ते जाणनक्रियामात्र भावरूपे पोते ज होवाथी) आत्माने ज्ञानमात्रपणुं छे. माटे ज तेने ज्ञानमात्र एक भावनी अंतःपातिनी (ज्ञानमात्र एक भावनी अंदर पडनारी अर्थात् ज्ञानमात्र एक भावनी अंदर आवी जती) अनंत शक्तिओ ऊछळे छे. (आत्माना जेटला धर्मो छे ते बधायने, लक्षणभेदे भेद होवा छतां, प्रदेशभेद नथी; आत्माना एक परिणाममां बधाय धर्मोनुं परिणमन रहेलुं छे. तेथी आत्माना एक ज्ञानमात्र भावनी अंदर अनंत शक्तिओ रहेली छे. माटे ज्ञानमात्र भावमां-ज्ञानमात्र भावस्वरूप आत्मामां-अनंत शक्तिओ ऊछळे छे.)’

‘परस्पर भिन्न एवा अनंत धर्मोना समुदायरूपे परिणत.... ,’ जुओ, आमां शुं कीधुं? के द्रव्यमां जे अनंत गुणो छे तेओ परस्पर भिन्न छे. एटले शुं? के जेम आत्मा कदी जडरूप न थाय तेम आत्मानो एक गुण बीजा गुणरूपे थतो नथी. द्रव्यभेद, के क्षेत्रभेद छे एम नहि, पण प्रत्येक गुण भिन्न भिन्न लक्षणवाळो छे. जेमके अस्तित्वनुं लक्षण होवापणुं छे, ज्ञाननुं लक्षण स्व-परने जाणवापणुं छे, आनंदनुं लक्षण आह्लाद छे, सम्यक्त्वनुं लक्षण तत्त्वनी निर्विकल्प प्रतीति छे, इत्यादि. एम तो ज्यां ज्ञान छे त्यां ज दर्शन छे ने त्यां ज आनंद इत्यादि अनंतगुण छे, तथापि एक गुण बीजा गुणरूपे थतो नथी. आ रीते अनंत गुणो परस्पर भिन्न छे. अहाहा...! गुण अपेक्षाए अनंतता अने द्रव्यपणे एकता-एम आमां अनेकान्त सिद्ध थाय छे. समजाय छे कांई...?

वळी जेम द्रव्यना अनंत गुणो परस्पर भिन्न छे तेम गुणोनी एकेक समयनी पर्यायो पण परस्पर भिन्न स्वतंत्र छे. अनंत गुणनी पर्यायो बधी एकसाथे छे पण तेमां कोई एक गुणनी पर्याय बीजा गुणनी पर्यायरूप नथी, तेओने परस्पर एकपणुं नथी. वळी एक ज गुणनी क्रमे प्रगट थती पर्यायोमां पण एक समयनी पर्याय तेना पूर्ववर्ती समयनी पर्यायरूप थती नथी, के उत्तरवर्ती समयनी पर्यायरूप पण थती नथी. ओहो...! दरेक गुणनी समय-समयवर्ती एम अनंत समयनी प्रत्येक पर्याय स्वतंत्र छे. अहा! आवा गुण-पर्यायरूप धर्मोनो अभेद पिंड प्रभु आत्मा छे.

अहाहा...! आत्मामां ज्ञान, दर्शन, आनंद, अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अनंत गुण अने तेनी समयसमयनी अनंत पर्यायो परस्पर भिन्न भिन्न छे. एटले शुं? के एक गुण बीजा गुणरूप नथी. भले एक गुणमां बीजा गुणनुं रूप हो, पण एक गुण बीजा गुणरूप नथी. तेम एक गुणनी अवस्था-पर्याय बीजा गुणना कारणे थाय एम पण नथी. आ अंदरनी वात छे. अहाहा...! दरेक गुणनी प्रत्येक पर्यायमां छकारकरूप थईने परिणमवानुं पोतानुं स्वतंत्र वीर्य छे. प्रत्येक पर्याय पोते पोताना सामर्थ्यथी ज पोतानी रचना करे छे; आवो ज (पर्यायधर्म छे. अहाहा...! पर्यायनुं कारण परद्रव्य तो नहि, स्वद्रव्य-गुण पण नथी.) पर्याय पोते ज पोतानुं कारण छे. सूक्ष्म वात छे जरी. एक ज समये पोते