८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ ज कारण ने कार्य छे. कारण-कार्यना भेद पाडीए ए तो खरेखर व्यवहार छे, कहेवामात्र छे. अहाहा...! द्रव्य सत्, प्रत्येक गुण सत् ने प्रति समय प्रगट थती पर्याय पण पोताना स्वरूपथी सत् छे, (अहींया अतद्भावरूप भिन्नतानी वात छे) ओहो! आम मोक्षमार्गनी पर्याय स्वतंत्र ने मोक्षनी पर्याय पण स्वतंत्र छे. आमां तो एकलो निरपेक्ष वीतरागभाव ज सिद्ध थाय छे. आम केम? एवा विकल्पने अवकाश ज नथी, एकलुं ज्ञातापणुं सिद्ध थाय छे. समजाणुं कांई...? अहाहा...! आवो आत्मा अनंत धर्मोना समुदायरूप एक धर्मी छे.
अहाहा...! बटाटानी एक राई जेटली कटकीमां असंख्य औदारिक शरीर छे; ने ते दरेक शरीरमां अनंता जीव छे. ते बधा जीव-प्रत्येक जुदे जुदो स्वतंत्र छे. अहाहा...! ते प्रत्येक जीव अनंत शक्तिओनो एक पिंड छे. ते शक्तिओ, अहीं कहे छे, परस्पर भिन्न छे; अने ते प्रत्येक शक्तिनी क्रमे थती पर्यायो परस्पर भिन्न ने स्वतंत्र छे; वळी एकेक पर्यायमां अनंत अविभागप्रतिच्छेद अंशो छे, तेमांनो एक अंश बीजा अंशरूप नथी. अहो! आवुं अलौकिक स्वतंत्रताने प्रसिद्ध करनारुं वस्तुदर्शन ते जैनदर्शन छे; एमां बधुंय अनेकान्तस्वरूप छे. ‘स्वपणे छे ने परपणे नथी’ एवुं द्रव्यमां, गुणमां, पर्यायमां ने एकेक अविभागप्रतिच्छेदमां पण अनेकान्त छे. अहाहा...! आवी अनेकान्तमय मूर्ति प्रभु आत्मा छे. ‘परस्पर भिन्न एवा अनंत धर्मो’-एम कहीने अनेकपणुं सिद्ध कर्युं; ने ‘अनंत धर्मोना समुदायरूपे परिणत एक ज्ञप्तिमात्र भावरूपे पोते ज होवाथी आत्माने ज्ञानमात्रपणुं छे.’ -एम कहीने एक ज्ञानमात्र भावमां अनंतधर्मोने अभेद करी समावी दीधा. अहो! आ अलौकिक वात छे.
अहाहा...! हुं ज्ञानलक्षणथी लक्षित अनंत गुणोनो पिंड एवो एक ज्ञानमात्र आत्मा छुं एम ज्यां निर्विकल्प दृष्टि थाय छे त्यां जाणनक्रियामात्र-एक ज्ञप्तिक्रियामात्र भाव प्रगट थाय छे. अहाहा...! एमां ज्ञाननी साथे बीजा बधा ज अनंत गुणनी निर्मळ परिणति एक साथे ज उत्पन्न थाय छे, अहाहा...! ए बधानुं परिणमन एक ज्ञप्तिमात्र भावमां साथे ज छे अने ते आत्मा ज छे. समजाणुं कांई...? एक समयमां अनंत गुणनी अनंत पर्याय थवा छतां ए बधुं एक ज्ञप्तिमात्र भावमां समाई जाय छे. अनंती पर्याय ज्ञेयपणे होवा छतां ए बधु एक ज्ञप्तिमात्र भावमां अभेदरूप छे, भिन्न नथी. अहाहा...! जाणवानी एक पर्यायमां बधा ज गुणो ने पर्यायोनुं ज्ञान अभेदपणे समाई जाय छे अने ते रूपे पोते ज थतो होवाथी आत्माने ज्ञानमात्रपणुं छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! अंदर नजर करतां ज न्याल करी दे एवो चैतन्यमहाप्रभु आत्मा छे. अहाहा...! जेमां परस्पर भिन्न अनंतधर्मो छे एवा अभेद आत्माने लक्ष करीने ज्यां ज्ञान परिणम्युं, त्यां ते ज्ञप्तिमात्र भावनी साथे अनंतगुणनुं परिणमन भेगुं ज प्रगट थाय छे. अहाहा...! अनंतधर्मथी एकमेक एवुं ते ज्ञान रागथी जुदुं छे. अहा! आवी ज्ञप्तिक्रिया ते आत्मानी निर्विकारी धर्मक्रिया छे. अहा! आवी अंतरनी वात! भगवाननी वाणी बहु गंभीर बापु! एना एक-एक शब्दे अमृतनी धारा वहे छे. कोईने थाय के शुं आवो धर्म! हा, भाई! आ धर्मनुं मूळ रहस्य छे. आना विना बधुं ज थोथां छे, कांई कामनुं नथी.
जुओ, दामनगरमां एक शेठ हता. एमनो गाम आखामां भारे प्रभाव. आखा गाममां कोई एमनुं वचन उथापे-ओळंगे नहि. कोईनी पण तकरार होय तो पोते वच्चे पडे ने समाधान थई ज जाय. हवे ज्यारे एना मरणनो समय आवी लाग्यो तो लोको बहु खबर काढवा आवे. गामना बीजा शेठियाओ पण एने मळवा-खबर अंतर पूछवा-आवे; त्यारे आंखमां चोधार आंसु लावी ते कहे-अरेरे! आ गाम आखानी पंचातमां पडीने में मारुं (मारा आत्मानुं) कांई ज न कर्युं; जिंदगी आखी एम ने एम गामनी पंचातमां ज पूरी थई गई. भाई! आम ने आम (विषय-कषायमां) जिंदगी चाली जाय छे. जरा जो तो खरो; विचार तो कर के तुं कोण छो? ने तुं शुं करे छो? भाई! अंतर्मुख द्रष्टि कर्या विना-भेदज्ञाननी द्रष्टि विना-तारां जन्म-मरणनां दुःख नहि मटे. वादिराज मुनिराज कहे छे-भूतकाळनां दुःखोने हुं याद करुं छुं तो अंदरमां वज्राघात समान घा वागे छे; एम के आवां असह्य दुःखो केवी रीते वेठयां हशे? भाई! तारे आवां तीव्र घोरातिघोर दुःखोथी बचवुं होय तो एनो अहीं आचार्य भगवान उपाय बतावे छे; तो सावधान था.
कहे छे-‘माटे ज तेने ज्ञानमात्र एक भावनी अंतःपातिनी अनंत शक्तिओ ऊछळे छे.’ अहाहा...! शुं कीधुं आ? के जाणन... जाणन... जाणन एवुं जे ज्ञानलक्षण ए वडे अंतर्मुखपणे ज्यां लक्ष्यने (चैतन्यमहाप्रभु आत्माने) पकडयुं त्यां सम्यग्ज्ञाननी जे निर्मळ परिणति प्रगट थई एमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि अनंत गुणनी पर्याय अंतःपातिनी एटले अंदर समाई जाय छे. अहा! प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप स्वद्रव्यने पकडीने ज्यां