ज्ञान प्रगट थयुं तो एमां स्वद्रव्य (अनंतगुणनो पिंड) अने ज्ञानक्रियानुं (जेमां अनंतगुणनी निर्मळ पर्यायो समाई जाय छे ते) निर्विकल्प प्रमाणज्ञान एकसाथे प्रगट थई गयुं. माटे अहीं कह्युं के-ज्ञानमात्र भावनी अंदर अनंत शक्तिओ ऊछळे छे.
अहीं ‘अनंत शक्तिओ ऊछळे छे’-एम कहीने ज्ञान साथे भेगुं अनंत शक्तिओनुं निर्मळ परिणमन आचार्यदेवे सिद्ध कर्युं छे. सूक्ष्म वात छे भाई! वस्तु-द्रव्य ज अनंतगुणस्वरूप छे; तेथी द्रव्यनुं (निर्मळ) परिणमन सिद्ध थतां ज बधा गुणो निर्मळ परिणमी जाय छे. अहाहा...! अनंतगुणमंडित अभेद एकाकार द्रव्यने लक्षमां लईने ज्यां साधक जीव परिणम्यो त्यां ते परिणमनमां भेगी अनंती शक्तिओ निर्मळ ऊछळवा लागे छे. अहाहा...! ज्ञानादि अनंत शक्तिओ आत्मामां अभेद-तन्मय थईने परिणमी तेने ज अहीं ‘ज्ञानमात्र भाव’ कह्यो छे. समजाणुं कांई...?
आत्माना अनंतगुणमां लक्षणभेद भले हो, पण क्षेत्रभेद नथी, ने परिणमननो काळभेद पण नथी. आत्माना असंख्य प्रदेशमां एकीसाथे ज अनंत गुण व्यापीने रह्या छे. तेथी आत्माना एक परिणाममां बधाय धर्मोनुं परिणमन साथे ज रहेलुं छे. अहाहा...! आत्माना परिणमनमां अनंत गुण-शक्तिओ एकीसाथे ज निर्मळपणे ऊछळे छे-परिणमे छे. गुणोना परिणमनमां (साधकने) हीनाधिकतारूप तारतम्यता छे ए वात अहीं नथी लेवी. शुं कीधुं? क्षायिक सम्यक्त्वनुं परिणमन होय छतां चारित्रनी निर्मळता पूर्ण न होय-ए गुणभेद अहीं मुख्य नथी. अहीं तो अभेद द्रव्य परिणमतां बधा गुण निर्मळ परिणमे छे-एम अभेदनी मुख्यताथी वात छे. जुओ, अहीं परिणमन शब्दे निर्मळ परिणमननी वात छे; विकारना परिणमनने तो अहीं शक्तिना परिणमनमां गण्युं नथी, केमके विकार आत्मा नथी, अहीं तो द्रव्य-गुण ने तेनी निर्मण परिणति-ए त्रणने अभेद करीने तेने ज आत्मा गण्यो छे. विकारने तो ज्ञानलक्षणना बळे आत्माथी भिन्न ज करी दीधो छे. समजाय छे कांई...?
क्षायिक समकित थतां ज साधकने बधा ज गुण एकसाथे पूरण खीली जाय छे एम तो नथी, एटले (कथंचित्) गुणभेद छे, परंतु अहीं ए मुख्य नथी, गौण छे. अहीं तो वस्तुपणे बधाय गुण अभेद छे, तेथी द्रव्य अभेद परिणमतां साथे बधा ज गुणोनो अंश एकसाथे ऊघडी जाय छे. एक गुण निर्मळ परिणमे अने बीजा गुण सर्वथा मलिन रहे, अंशे पण निर्मळ न थाय एम बनतुं नथी. ल्यो, ज्ञानमात्र भावनी अंतःपातिनी अनंत शक्तिओ ऊछळे छे एनो आ आशय छे, आ अर्थ छे-के द्रव्य अभेद परिणमतां सर्व अनंत शक्तिओ निर्मळ परिणमी जाय छे. निर्मळतामां हीनाधिकताना भेद पडे ए अहीं मुख्य नथी. आवी वात छे. पण अरेरे! एणे कदी स्वसन्मुखता करी नथी; ज्यां पोतानो भगवान-निर्मळानंदनो नाथ प्रभु-विराजे छे त्यां नजर करी नथी! बहारमां ने बहारमां ए पोताने पामर मानीने रोकाई गयो छे.
जुओ, आ रीते अहीं ‘ज्ञानमात्र आत्मा’ कहीने--परद्रव्यथी अने विकारथी भेदज्ञान कराव्युं. -ज्ञानलक्षण वडे लक्ष्य एवा आत्मानी प्रसिद्धिनी सिद्धि करी, अने -ए ज्ञानमात्र भावमां अनंती शक्तिओ भेगी ज ऊछळे छे एम सिद्ध कर्युं. हवे आचार्यदेव आत्मानी अनंत शक्तिओमांथी केटलीक (४७) शक्तिओनुं वर्णन करे छे. केटलीक केम कीधी? केमके छद्मस्थ जीव सामान्यपणे आत्मामां अनंतशक्तिओ छे एम तो जाणे, पण विशेषपणे भिन्न भिन्न अनंती शक्तिओने न जाणी शके; वळी वाणी द्वारा अनंती शक्तिओनुं कथन पण शकय न बने; वाणीमां तो अमुक ज आवे. तेथी अहीं खास प्रयोजनपूर्वक ४७ शक्तिओनुं वर्णन कर्युं छे.
‘आत्मद्रव्यने कारणभूत एवा चैतन्यमात्र भावनुं धारण जेनुं लक्षण अर्थात् स्वरूपछे एवी जीवत्वशक्ति (आत्मद्रव्यने कारणभूत एवा चैतन्यमात्रभावरूपी भावप्राणनुं धारण करवुं जेनुं लक्षण छे एवी जीवत्व नामनी शक्ति) ज्ञानमात्र भावमां-आत्मामां उछळे छे’)
अहाहा...! आत्मा शक्तिओनो सागर प्रभु एक चैतन्यमहापदार्थ छे. तेमां अनंत शक्तिओ एटले गुणो छे. अहाहा...! शक्तिवान आत्मा एक द्रव्य छे, ने तेमां अनंत शक्तिओ छे. शुं कीधुं? भगवान आत्मा एक वस्तु छे ने तेमां संख्याए अनंत शक्तिओ छे. केटली? अनंत... अनंत... अनंत!