Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११

अहाहा...! आ जगतमां जीव अनंत छे, ने परमाणुओनी संख्या एनाथी अनंतगुणी अनंत छे; वळी त्रण काळना समयोनी संख्या एनाथीय अनंतगुणी छे, ने त्रण काळना समयोनी संख्याथी एक आकाश द्रव्यना प्रदेश अनंतगुणा अनंत छे. आ लोकालोकमां व्याप्त आकाश नामनो एक अरूपी महापदार्थ छे. तेनो दशेय दिशामां कयांय अंत नथी. जो आकाशनो अंत होय तो पछी शुं? पछी पण आकाश... आकाश... आकाश... एम ज आवे. जुओ, चौद ब्रह्मांडमां आ लोक छे, ने बाकीना भागमां दशे दिशामां सर्वत्र अनंत... अनंत विस्तरेलो अलोक-आकाश छे. अहाहा...! आ आकाश नामना पदार्थना त्रणकाळना समयोथी अनंतगुणा अनंता प्रदेश छे. अने तेना करतां अनंतगुणी अधिक एक जीवद्रव्यमां शक्तिओ छे. ओहो! आवडो मोटो भगवान आत्मा एक चैतन्य महापदार्थ छे. समजाय छे कांई...?

हा, तो ते जणातो केम नथी? अरे भाई! ते इन्द्रियगम्य पदार्थ नथी, ते स्वानुभवगम्य अतीन्द्रिय महापदार्थ छे. उपयोगने अंतर्मुख करवाथी ज जणाय एवो सूक्ष्म पदार्थ छे. कह्युं छे ने के-

तरणा ओथे डुंगर रे, डुंगर कोई देखे नहि.
तेम, मिथ्याभावनी ओथे आतम रे, आतम कोई देखे नहि.

भाई! तारे ए चैतन्य महापदार्थ देखवो होय तो इन्द्रिय अने रागथी पार अंदर तारी वस्तु छे त्यां उपयोगने लगावी दे; बाकी बहारमां फांफां मार्ये ए नहि जणाय.

भाई! सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वर जगतने दिव्यध्वनि द्वारा आ वात कही छे. अहाहा...! भगवानने ईच्छा विना ज ॐध्वनि नीकळे छे. ते ॐध्वनिमां आ आव्युं छे के-प्रभु! तुं एक अनंत शक्तिवंत द्रव्य-वस्तु छो. तारामां जीवत्व, चिति, द्रशि, ज्ञान, सुख, वीर्य इत्यादि अनंत शक्तिओ भरी छे. अहाहा...! प्रत्येक आत्मामां अनंत शक्तिओ-गुणो छे. ते बधा गुणो अक्रम एटले एकसाथे छे, अने ते गुणोनुं जे परिणमन थाय छे ते क्रमे थाय छे.

जेम साकरमां सफेदाई, चीकाश, मीठाश एकसाथे छे, तेम आत्मामां ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनंत शक्तिओ-गुणो अक्रमे-एकसाथे छे, अने तेनी पर्यायो थाय ते क्रमवर्ती छे. एक समयमां एक गुणनी एक पर्याय एम अनंत गुणनी एक समयमां अनंत पर्यायो थाय छे. ते बधी पर्यायो क्रमथी समये समये प्रगट थाय छे.

आ सांकळी आवे छे ने? सांकळी जेम अनेक कडीओनो समूह छे, तेम आत्मा असंख्य प्रदेशोनो समूह छे. प्रदेश एटले शुं? के एक परमाणु आकाशनी जेटली जग्या रोके तेने एक प्रदेश कहे छे. आत्मामां आवा असंख्य प्रदेशो छे, अने ते असंख्यप्रदेशी क्षेत्रमां सर्वत्र ज्ञानादि अनंतगुणो व्यापीने रहेला छे. ते अनंत गुणोने समये समये पर्यायो थाय छे. पर्यायो पलटे छे, ने द्रव्य-गुण कूटस्थ छे. केमके क्रमथी वर्ते छे माटे पर्यायो क्रमवर्ती छे, ने एकसाथे रहेवावाळा गुणो अक्रमवर्ती छे. आम अक्रमवर्ती गुणो ने क्रमवर्ती पर्यायोनो समूह ते आत्मद्रव्य छे. आवी वात वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरना शासन सिवाय बीजे कयांय नथी. भाई! जरा वातने न्यायथी मेळवी जो. आ लौकिक न्यायनी वात नहीं, अहीं तो ज्ञानस्वरूप वस्तु पोतानी जेवी छे तेवी जाणवा प्रति ज्ञानने दोरी जवुं ते न्याय छे. भाई! तारी चीज अंदर केवी छे तेने कदी तें जाणी नथी; तो हवे तेनो निर्णय कर.

अरे! आवुं मनुष्यपणुं मळ्‌युं, जैनकुळमां जन्म थयो अने पोताना चैतन्यमहापदार्थने न जाण्यो तो भवनो अंत कयारे आवशे? अरे भाई! पोतानी वस्तुनी महत्तानी किंमत कर्या विना, पर चीजनी ने रागनी किंमत- महिमा करी करीने तुं अनंतकाळथी चार गतिमां रझळी मर्यो छो. तो हवे तो निज चैतन्यवस्तुनो निर्णय कर; हमणां नहि करे तो कयारे करीश? (एम के पछी अवसर नहि होय.)

अहा! जळमां जेम तरंग ऊठे छे तेम द्रव्यमांथी पर्याय द्रवे छे. ‘द्रवति इति द्रव्यम्’ द्रवे छे ते द्रव्य छे. अहाहा...! पर्याय अंदर द्रव्यमांथी द्रवे छे. हवे आवो वीतराग परमेश्वरनो मार्ग लोकोए कदी सांभळ्‌यो नथी. ‘णमो अरिहंताणं’ -एम रोज जाप करे पण अरिहंत परमात्मा केवी रीते थया ने तेमनुं कहेलुं तत्त्व शुं चीज छे ते जाणवानी दरकारेय ना करे तेने मार्ग कयांथी मळे? अहा! तेने अंतरमां जैनपणुं कयांथी प्रगट थाय? भाई! जैन कोई संप्रदाय नथी. अंतरमां अनंतगुणनो पिंड अभेद एक चैतन्यवस्तु जेवी छे तेवी अंतरमां-अंतर्मुख उपयोगमां- देखतां-जाणतां मिथ्याभावनो नाश थाय छे. ने सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे; तेने जैन कहेवामां आवे छे. आ सिवाय जैन कोई वस्तु नथी. समजाणुं कांई...?

आ शरीर, मन, वाणी, कर्म ए तो धूळ-माटी जड-अजीव छे. ने अंदर पुण्य-पापना भाव थाय छे ते य परमार्थे