Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१-जीवत्वशक्तिः १३

अने ते श्रेष्ठ छे. अहीं पण आ कहे छे के-ज्ञान, दर्शन, आनंद, ने वीर्य ते जीवना चैतन्यभावप्राण छे अहा! अंतर्द्रष्टि करी आवा शुद्ध भावप्राणथी जीववुं तेनुं नाम जीवन छे अने ते श्रेष्ठ छे. चैतन्यभावप्राणथी जे जीवे छे, जीवतो हतो अने जीवशे तेने भगवाने जीव कह्यो छे. माटे बहिर्लक्ष मटाडी अंतर्मुख था, ने यथार्थ जीवन प्रगट कर.

दशप्राणरूप जीवत्व छे ते अशुद्ध छे. जडप्राणोथी जीव जीवे छे ए तो वात नहि, पण पांच इन्द्रियो (भावेन्द्रियो) ने मन, वचन, काया, आयु ने श्वासोच्छवास (अंदर जीवनी योग्यतारूप) -एवा दशप्राणरूप जे अशुद्ध जीवत्व तेनाथी जीव जीवे छे-ए वात पण अहीं नथी लेवी. अहीं तो शक्तिओना आ अधिकारमां शुद्ध जीवत्वनी वात छे. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यभावप्राणने धारण करी राखे छे एवी जीवत्वशक्ति प्रत्येक आत्मामां त्रिकाळ छे अने साधकने-धर्मी पुरुषने अंतरमां अभेद एक ज्ञानमात्रभावनुं जे परिणमन थयुं तेमां भेगी जीवत्वशक्ति पण निर्मळ उछळे छे. अहा! जेमां शक्तिनुं आवुं शुद्ध जीवत्वरूप परिणमन थाय छे एवुं ज्ञानानंदमय अनाकुळ शांतिमय अने प्रभुतामय जीवन समकिती जीव जीवे ते ज वास्तविक जीवन छे.

अहाहा...! जीवनी जीवत्वशक्ति एनी अनंत शक्तिमां व्यापक छे. शक्ति कहो, गुण कहो, स्वभाव कहो के भाव कहो; ते एक भाव सर्व भावोमां व्यापक छे! शुं कीधुं? एक भाव अनंतमां व्यापक छे. अहाहा...! जीवत्वशक्ति द्रव्य व्यापक छे, गुणमां व्यापक छे ने शक्तिमान त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यनी द्रष्टि थतां पर्यायमां पण व्यापक थाय छे. अरे! अनादिथी अज्ञानी जीवने निज शक्तिनुं भान नहि होवाथी एनी पर्यायमां शक्ति व्यापती न हती, विकार व्यापतो हतो; तेने शक्तिनुं फळ-कार्य नहोतुं; पण ज्यां शक्तिनो महिमा लावी शक्तिमान द्रव्यमां द्रष्टि दीधी त्यां पर्यायमां निर्मळ जीवत्व प्रगट थयुं; एवुं निर्मळ ज्ञानानंदमय जीवन प्रगटयुं के हुं द्रव्य प्राणोथी ने अशुद्ध भावप्राणोथी जीवुं छुं एवी द्रष्टि तत्काल छूटी गई; व्यवहार प्राणोनो आश्रय छूटी गयो. आवी वात! समजाणुं कांई...!

अहाहा...! केवळी परमात्मा एम कहे छे के-भाई! तारी चीजमां एक जीवन नामनी शक्ति छे. अहाहा...! ते तारुं निज सत्त्व छे. हवे त्यां शक्ति अने शक्तिवानना भेदनुं लक्ष छोडी अभेद एक ज्ञानमात्र भावनुं अंतर- लक्ष करतां तारी जीवन शक्ति तत्काल प्रगट थाय छे. अहाहा...! ते द्रव्य, गुण ने पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. अहाहा...! द्रव्यमां जीवत्व, गुणोमां जीवत्व अने पर्यायमां जीवत्व प्रगट थाय छे; अर्थात् तारी जीवनशक्ति क्रमे निर्मळ-निर्मळ परिणमे छे. जो,

-आ शरीरादि तारा आत्माना द्रव्य-गुण-पर्याय एकेयमां व्यापता नथी, -आ पुण्य-पाप आदि विकार आत्माना द्रव्य-गुणमां व्यापता नथी, एक समयनी पर्यायमां तेओ व्यापे छे,

तथापि सर्व पर्यायोमां तेओ व्यापता नथी. ज्यारे-

-द्रष्टिवंतने आ जीवत्व शक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. अहाहा...! तेथी पोताना द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेयमां व्यापक एवी जीवत्वशक्तिथी भगवान! तुं जीवे ते यथार्थ जीवन छे, उज्ज्वळ सुखमय जीवन छे. ल्यो, आ रीते क्रमवर्ती पर्यायो ने अक्रमवर्ती गुणोनो पिंड ते हुं आत्मा छुं एम (प्रमाण) सिद्ध थाय छे. आ अनेकान्त छे. अहो! वीतराग सिवाय आवी चीज वेदांतादि बीजे कयांय नथी, श्वेतांबरमांय नथी; अमे तो श्वेतांबरनाय करोडो श्लोक जोयाछे.

अहाहा...! अहीं कहे छे-चैतन्यमात्र भावप्राणनुं धारण करवुं जेनुं स्वरूप छे एवी जीवत्व नामनी शक्ति ज्ञानमात्र भावमां एटले अंदर आत्मामां ऊछळे छे. एक ज्ञानमात्र भाव कीधो एमां अंदर अंतर्लीन सर्व अनंती शक्तिओ ऊछळे छे एम वात छे. अहाहा...! हुं ज्ञानमात्र आत्मा छुं एवो ज्यां अंतर्लक्षे अनुभव थयो-अहाहा...! सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान ज्यां प्रगट थयुं-त्यां साथे आनंद, सुख, वीर्य, प्रभुता, जीवत्व आदि अनंत गुणनी क्रमवर्ती निर्मळ पर्यायो ऊछळे छे. आवी सूक्ष्म वात; समजाय एटली समजो प्रभु! आ तो-

सहेजे समुद्र उलसियो, ने मांही मोती तणातां जाय;
भाग्यवान कर वावरे, एनी मोतीए मुठीओ भराय.

अहाहा...! भगवान कहे छे-अतंद्रष्टि करतां ज तारो चैतन्य-दरियो अनंत गुणरत्नोथी पर्यायमां ऊछळ्‌यो छे-प्रगट थयो छे. माटे अहीं ज्ञानमात्र कीधो एमां एकान्त न समजवुं. वास्तवमां ज्ञानमात्र आत्मानी द्रष्टि थतां ज्ञान साथे अनंत गुणनी क्रमवर्ती निर्मळ-शुद्ध पर्यायो उछळे छे. जुओ, अहीं आ शक्तिना अधिकारमां सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र