भिन्न भिन्न छे, एकबीजाथी निरपेक्ष छे. तेथी राग कर्ता ने निर्मळ पर्याय तेनुं कार्य एम कदी छे नहि. अहा! आ ओम्ध्वनिमां आवेली वात छे.
अहा! ए ओम्ध्वनिनी गंभीरतानी शी वात! जुओ, प्रथम देवलोकनो स्वामी शक्रेन्द्र समकिती छे; ते ३२ लाख विमाननो स्वामी छे, घणामां तो असंख्य देव छे. तेनी पटराणी-शची पण सम्यग्द्रष्टि छे. बन्ने एकभवतारी छे, एक भव मनुष्यनो करी बन्ने मोक्ष पामवानां छे. अहा! आवा इन्द्र-इन्द्राणी भगवाननी वाणी-ओम्ध्वनि सांभळवा आवे ते वाणी केवी होय! अहा! ए वाणी अपार गंभीर अने भव्य जीवोने हितकारी-सुखकारी छे. अरे! आवो मनुष्य भव मळ्यो, जैनमां जन्म थयो अने छतां भगवान जिनेश्वरदेव शुं कहे छे ते नहि समजे तो फेरो फोगट जशे भाई!
जो तो खरो! अहाहा...! भरत चक्रवर्ती हता. अहाहा...! तेमना वैभवनुं शुं कहेवुं? अपार वैभवना ते स्वामी हता. ९६ हजार राणीओ, ९६ करोडनुं पायदळ, ४८ हजार नगर ने ७२ हजार पाटणना ते स्वामी हता. देवताओ तेमनी सेवा करता, इन्द्र सरिखा तेमना मित्र हता. पण तेओ समकिती आत्मज्ञानी हता; अंदर तेमने स्वस्वरूपनो अनुभव अने द्रष्टि प्रगट थयां हतां. तेथी आ बधो वैभव ते हुं नहि, ने अंदर जे राग आवे छे ते पण हुं नहि, हुं तो ज्ञानानंदस्वरूप छुं, ल्यो, एम मानता हता. अहाहा...! द्रष्टि अने द्रष्टिनो विषय (शुद्धात्मा) कोई अलौकिक चीज छे बापु! तेनो महिमा आवे एने पण अलौकिक पुण्य बंधाई जाय छे; तेनी प्राप्तिनी तो शी वात! ए तो अतीन्द्रिय सुखमय जीवननी देनारी छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! स्वरूपनी द्रष्टि नाम सम्यग्दर्शन कोई महा महिमावंत चीज छे भाई! सम्यग्ज्ञान दीपिकामां क्षुल्लक ब्र. धर्मदासजीए समकितनो महिमा बतावतां एक द्रष्टांत आप्युं छे के-जेम कोई स्त्रीने माथे पति छे ने तेने परवशपणे कोई दोष लागी जाय तो तेनी बहार प्रसिद्धि थती नथी तेम जेनी द्रष्टि आत्मा उपर छे एवा ज्ञानीने (समकितीने) कर्मवश कोई अशुभ रागादि भाव आवी जाय तो तेनो दोष बहारमां प्रसिद्धिमां आवतो नथी (अर्थात् ते अल्पबंधनुं ज कारण थाय छे). हवे आमां तो साची द्रष्टिनो महिमा बताववा आ द्रष्टांत छे. एमां तो लोक सोनगढना नामे ऊहापोह ने खळभळाट मचाववा मंडीपडया. पण बापु! आ तो क्षुल्लकजीए आपेलुं द्रष्टांत छे (सोनगढनुं नथी), ने एमां तो सम्यग्दर्शननो-आत्मदर्शननो महिमा बताववानुं प्रयोजन छे. बाकी ज्यां दया, दान आदि शुभ विकल्प पण दुःखरूप छे, तो पछी स्त्री संबंधी विषय-भोगनां अशुभ परिणाम केम भला होय, दोषरहित होय? ए तो महापापमय ने महादुःखमय ज छे. ते करवालायक छे एम वात ज नथी.
भाई! परमात्मा सर्वज्ञदेव एम कहे छे के-प्रभु! तुं एक जीवित वस्तु छो के नहि? छो, तो तेनुं कारण शुद्ध चैतन्य भाव प्राणने धारण करनारी जीवत्व शक्ति छे. अहाहा...! जीवत्वने लईने तुं जीवी-टकी रह्यो छो. कांई शरीरथी, इन्द्रियोथी, श्वासथी, खोराक-पाणीथी के पैसाथी तुं टकी रह्यो छो एम छे नहि. ए संयोगी चीज भले हो, पण एनाथी तारुं जीवन टकयुं नथी. एनाथी तो भगवान! तुं भिन्न-जुदो छो, ने पुण्य-पापना भावथी पण जुदो छो. तो ए भिन्न पदार्थो तारा आत्मद्रव्यने जीववाना-टकवाना कारणभूत केम होय? न होय. अहाहा..! तारी जीवनशक्तिमां ज्ञान, दर्शन, आनंद अने बळ एम चैतन्यभाव प्राण पडया छे, ने ते वडे तुं त्रिकाळ जीवित छो, भाई! अहाहा...! जीवनशक्तिना धरनार शुद्ध आत्मानी द्रष्टिपूर्वक अंदरमां जेणे जीवनशक्तिनो स्वीकार कर्यो तेने पर्यायमां निराकुळ आनंदनी जीवन-दशा प्रगटे छे. अहाहा...! आ जीवनशक्ति तो जीवना जीवननी जडीबुट्टी छे भाई! जेणे ते हस्तगत करी, मानो ते अमर थई जाय छे. (तेने मरवानी बीक खलास थई जाय छे). भजनमां आवे छे ने के
या कारण मिथ्यात दियो तज, कयों करि देह धरेंगे?
अब हम अमर भये न मरेंगे
आ देहथी, ने खोराक-पाणीथी मारुं जीवन छे, ने आ राग ने पुण्य मने भलां छे एम मानीने प्रभु! तुं केम सूतो छो? अहाहा...! देहादिथी तुं जीवन माने ने पुण्यने भलुं जाणे ए तो महा विपरीतता छे, मिथ्याभाव छे, माथे करज छे बापु! पालेजमां पिताजीनी पेढी पर बेसी सझ्झायमाळा वांचतो एमां आवतुं के-
मोहतणा रणिया भमे, जाग–जाग रे मतिवंत रे!