Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११

अहा! चेतन प्रभु! जाग रे जाग, नाथ! जाग; तारे माटे आ जागृत थवानो काळ छे. अहा! आ रूपाळा देहादि छे ए तो जड माटी-धूळ छे, ए तो बळीने खाख थई जशे. प्रभु! एनाथी तारुं जीवन केम होय? आ राग अने पुण्यथी पण तारी चीज-सुखनिधान सच्चिदानंद प्रभु-अंदर भिन्न पडी छे. अहाहा...! भगवान! तुं देहादि ने रागादिथी शून्य (नास्तिपणे) छो. अहाहा...! आवी तारी चीजने नजरमां ले प्रभु! तारी नजरमां परचीज-देहादि ने रागादि देखाय छे त्यांथी खसीने तारी नजरनी पर्यायने तारा सुखनिधानमां जोड. दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादिना विकल्प करतां करतां साचुं जीवन प्रगटशे एम तुं माने ए तो तने मोहजन्य विभ्रम छे बापु! ए भावो तो बधा दुःखरूप छे, एक आत्मा अने निर्मळ आत्मपरिणति ज निराकुळ छे, सुखमय छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?

अहा! समुद्रमां जेम भरती आवे छे तेम भगवान आत्मामां अंतर्द्रष्टि करतां वर्तमान प्रगट पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदनी भरती आवे छे. अहा! ध्रुव त्रिकाळी शक्तिवान द्रव्यनी द्रष्टि करतां पर्यायमां ज्ञान-दर्शन-आनंद- वीर्यरूप जीवनशक्तिना परिणमननी साथे बीजी अनंत शक्तिओ व्यक्त-प्रगट थाय छे. एने शक्तिओ ऊछळे छे एम अहीं कह्युं छे. अहाहा...! द्रष्टिवंतने जीवनशक्तिनी जेम अकार्यकारणत्व शक्ति पण ऊछळे छे, जे वडे भगवान आत्मा व्यवहार-रत्नत्रयना रागनुं कार्य नथी, ने एनुं कारण पण नथी. अहाहा...! व्यवहार रत्नत्रयना रागने आत्मा उत्पन्न करे एमेय नहि. ने आत्मानी निर्मळ परिणतिनुं व्यवहार रत्नत्रय कारण बने एमेय नहीं. अहा! अत्यारे तो बहु जोरथी प्ररूपणा चाले छे के-व्रत करो, ने उपवास करो, ने भक्ति करो इत्यादि. परंतु भाई! ए कोई चीज नथी. एमां राग मंद होय तो पुण्यबंध थाय बस एटलुं; बाकी ए दया, दान, व्रतादिना विकल्प कोई द्रव्य नहि, गुण नहि, ने आत्मद्रव्यनी पर्याय पण नहि. (अहीं शक्तिना अधिकारमां निर्मळ पर्यायने ज आत्मा गणी छे).

अरे! भरते अत्यारे केवळी परमात्माना विरह पडया! सद्भाग्ये परमात्मानी वाणी आ शास्त्ररूपे रही गई छे. भगवान श्री कुंदकुंदाचार्य देव सदेहे विदेह गया हता. साक्षात् सीमंधर भगवाननी वाणी-ॐ ध्वनि सांभळी हती. त्यांथी आ संदेश लाव्या छे के-प्रभु! जीवनशक्तिथी तारो आत्मा पूरण भर्यो पडयो छे. अहाहा...! भगवान! तुं पुण्य-पापने शरीरादिथी शून्य छो, ने पोतानी अनंत शक्तिथी अशून्य-पूर्ण भरपूर छो. अहा! आवो हुं ज्ञानमात्र आत्मा छुं एम विश्वास लावी अंतर्द्रष्टि करे त्यां ज अंतरमां जीवनशक्ति निर्मळ निराकुळ आनंदमय जीवन सहित प्रगट थाय छे; अने भेगी अनंत शक्तिओ निर्मळ ऊछळे छे. अरे भाई! अनंत काळमां तुं देहनी ने रागनी द्रष्टि वडे चार गतिमां रझळ्‌यो छो, माटे पुण्य करतां करतां धर्म प्रगटशे-जीवन प्रगटशे-ए वात जवा दे, अने स्वस्वरूपमां-जेमां अनंत शक्तिओ एकसाथे रहेली छे तेमां अंतर्लीन था. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आ ज मारग छे भाई!

भाई! आ तारा हितनी वात छे बापु! तने अहित जेवी लागे पण आ एवी वात नथी. शुभभाव- पुण्यभाव पोते ज बंधरूप छे ने बंधनुं कारण छे, ज्यारे भगवान आत्मा अबंध छे-मुक्तस्वरूप छे. समयसार गाथा १पमां आवी गयुं के-जे आत्माने अबद्धस्पृष्ट देखे छे ते सकळ जैनशासन देखे छे. अहा! जे द्रव्यश्रुत-वाणी छे तेमां पण एज उपदेश छे के- ‘जो पस्सदि, अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं। अपदेस संतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं’ द्रव्यश्रुतमां पण आत्माने अबद्धस्पृष्ट ने पुण्य-पापना भावथी रहित कह्यो छे. अहाहा...! विशेषने गौण करी, तेनुं लक्ष छोडी जे चित-सामान्य भगवान आत्माने अंतरमां देखे छे ते आखुं जैनशासन देखे छे. अहा! तेनुं जीवन महा महिमावंत छे.

अरे! अनंतकाळथी जीव चतुर्गति-परिभ्रमण करे छे. ते परिभ्रमणना नाशनो उपाय कोई अपूर्व होय बापु! कोई लोको कहे छे-व्यवहार-राग करतां करतां धर्ममय-सुखमय जीवन प्रगटशे, पण एम छे नहि. भाई! दया, दान, व्रत आदिना पुण्यभाव ते अपूर्व नथी; अनंतकाळमां तुं अनंतवार करी चूकयो छो. प्रभु! (छतां पण तुं तो ज्यां छो त्यां ज छो). माटे व्यवहार करतां करतां धर्म थाय एवी मान्यता यथार्थ जैनमत नथी. अहा! भगवान आत्मा द्रव्य छे एनुं कोई व्यवहार कारण नथी, गुणनुं कोई व्यवहार कारण नथी, अने जे निर्मळ पर्याय प्रगट थाय तेनुंय कोई व्यवहार कारण नथी. भाई! तारी वस्तुमां-त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यमां-अंतर्द्रष्टि ने अंतर-रमणता करे बस ए एक ज मोक्षनो उपाय वा कारण छो समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– शक्तिनुं वर्णन तो ठीक, पण अमारे तो मोक्षमार्ग सांभळवो छे. उत्तरः– मोक्षमार्गनी वात तो चाले छे. शक्तिओनो पिंड शक्तिवान जे द्रव्य छे तेनी प्रतीति-रुचि करतां पर्यायमां मोक्षमार्ग