२०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ आकाश... बस आकाश अनंत-अनंत जोजनमां हाल्युं जाय छे; कयांय एना क्षेत्रनो अंत नथी. अहा! आकाशना क्षेत्रना विस्तारनो जेम कयांय अंत नथी, तेम क्षेत्रने जाणनार क्षेत्रज्ञना (आत्माना) भावनो अंत नथी. आकाशना अनंत क्षेत्रनो जाणनार भगवान आत्मा छे तेना ज्ञाननो अंत नथी. अहा! क्षेत्रने जाणनारुं ज्ञान बेहद-अपरिमित अनंत छे. अहा! आ ज्ञानमां आकाशना अनंत प्रदेशोथी अनंतगुणी शक्तिओ भगवान आत्मामां छे एम जाणवामां आव्यु छे. ते पैकी, अहीं कहे छे, तेनी (-आत्मानी) एक अजडत्वस्वरूप चितिशक्ति छे. चिति नाम चेतना; एमां ज्ञान-दर्शन बन्ने साथे लेवां. हवे पछी बन्नेनुं भिन्न भिन्न निरूपण पण करशे.
अहाहा...! अहीं कहे छे-भगवान! तारा ज्ञानमात्र स्वरूपमां एक चितिशक्ति छे. ते अजडत्वस्वरूप एटले पूरण चैतन्यस्वरूप छे. अहा! ते त्रिकाळी द्रव्य-गुणमां व्यापक छे ने त्रिकाळी ध्रुवनी द्रष्टि थये पर्यायमां पण व्यापक थाय छे. अहाहा...! आ रीते चितिशक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे; द्रव्य शुद्ध चैतन्यमय, गुण शुद्ध चैतन्यमय, ने क्रमे प्रगटती पर्याय पण शुद्ध चैतन्यमय छे; अर्थात् चितिशक्ति क्रमे निर्मळ चैतन्यमय परिणमे छे. अहाहा...! तेमां जडपणुं नथी. एटले शुं? के तेमां देह, कर्म आदि जड भावोनो अभाव छे, अने ते जडना लक्षे थता पुण्य-पाप आदि भावोनो पण तेमां अभाव छे. झीणी वात छे प्रभु! जेम लोढानी छीणीथी लोढुं कपाय तेम अंदर प्रज्ञाछीणीने पटकवाथी ज्ञानथी राग छूटो पडी जाय छे. आनुं नाम धर्म छे.
आ पुण्य-पाप आदि रागादि भावो छे तेमां चैतन्यनो अभाव छे. शुं कीधुं? आ दया, दान, व्रत आदि भाव छे ने? ते चैतन्यथी शून्य जड छे. हवे लोकोने आ वात आकरी पडे छे. तेमने क्रियाकांडनी स्थूळ वातो पकडावी देवामां आवी छे ने! दया करो, ने व्रत करो, ने भक्ति करो; पांच-पचीस हजार एमां खर्चो एटले धर्म थई जाय एम पकडाव्युं छे ने! परंतु भाई! करोडो रूपिया दानमां दई दे तोय त्यां जो मंद राग कर्यो होय तो पुण्य बंध थशे बस, पण धर्म नहि थाय. आ तो मारगडा जुदा छे नाथ! पुण्यभावमां चेतनशक्तिनो अभाव छे; अर्थात् ज्यां तुं छो त्यां पुण्य-पापना भाव छे नहि. समजाणुं कांई...? अहाहा...! तुं तो अपरिमित चैतन्यनो भंडार छो प्रभु!
हा, पण तो अमे तीर्थसुरक्षामां दान देत नहि. समाधानः– कोण दे बापु? ए रूपिया तो एना काळे आववाना आवे छे ने जवाना जाय छे; तुंकयां एनो मालीक छो? एनो कर्ता-हर्ता तुं नथी. ए तो धर्मात्माने अस्थिरतावश दान देवानो विकल्प आवे छे, आव्या विना रहेतो नथी, पण ए विकल्प मारुं कर्तव्य छे एम ते मानता नथी. धर्मात्मा न तो दाननी राशिना स्वामी छे, न तो दानना विकल्पना स्वामी छे. समजाणुं कांई...? भाई! तने विषय-कषायमां उत्साह आवे छे, ने दानादिमां नथी तो अमे जाणीए छीए के तुं महापापी छो, ने वळी तने दानादिमां उत्साह वर्ते छे, पण आत्माना अनुभवमां उत्साह नथी तोय भाई! तुं मूढ छो, आवी वात! समजाणुं कांई...?
अहो! ४७ शक्तिओ काढीने आचार्य महाराजे गजब काम कर्युं छे, सत्ने खुल्लुं कर्युं छे. श्रीमदे कह्युं छे-सत् सरळ छे, सत् सर्वत्र छे, पण सत्नुं मळवुं दुर्लभ छे.
हा, पण गुरु मळे तो सत् मळे ने? ए तो बापु! गुरुनो उपदेश जाणी अंतःसन्मुख थई अंतःतत्त्व-एक ज्ञायकतत्त्वनो अनुभव करे तो गुरु मळ्या एम कहेवाय; बाकी गुरु शुं करे? स्वयं स्वस्वरूपमां अंतःद्रष्टि करी भगवान आत्माना आनंदनो अनुभव करे ते मुख्य छे अने ते धर्म छे. स्वानुभव-आत्मानुभव धर्म छे. कह्युं छे ने के-
अनुभव मारग मोखको, अनुभव मोख सरूप.
अहाहा...! चिदानंदस्वरूप चैतन्यमहाप्रभु निज आत्मानी सन्मुख थईने स्वानुभव प्रगट करवो एनुं नाम मोक्षनो मार्ग छे, बाकी व्यवहार रत्नत्रयना भाव तो कांई नथी, बंधनुं कारण छे.
अहाहा...! आ अजडत्वस्वरूप चितिशक्ति छे तेमां अकार्यकारणत्वशक्तिनुं रूप भर्युं छे. अहा! आ ज्ञानमात्र भावमां चितिशक्ति उछळे छे तो तेना परिणमनरूप निर्मळ ज्ञान-दर्शननी एकरूप पर्याय प्रगट थाय छे. चितिशक्तिनुं आ परिणमन थाय तेमां कांई रागनुं-व्यवहारनुं कारणपणुं छे एम नथी. चितिशक्तिना परिणाम रागनुं कार्य नहि, ने