रागनुं कारण पण नहि. अहा! आवुं एमां अकार्यकारणपणुं छे. अहा! त्रिकाळी एक ज्ञानमात्र भावमां चितिशक्ति पडी छे. शक्ति अने शक्तिवानना भेदनी पण द्रष्टि छोडी, अखंड एक ज्ञानमात्र स्वरूप उपर नजर करतां चितिशक्ति पर्यायमां उछळे छे-प्रगटे छे, पण भेदथी-व्यवहारथी-रागथी-शक्ति निर्मळ प्रगटे छे एम नथी. राग तो आंधळो अचेतन छे बापु! एनाथी चेतन केम प्रगटे? भाई! तने व्यवहार करतां करतां निश्चय प्रगटे एम हठ छे पण ए तो तारी श्रद्धा ज मिथ्या छे. ए तारी मिथ्या हठ छे बापु! एनुं फळ बहु आकरुं छे भाई!
ज्ञान-दर्शननी निर्मळ दशा उत्पन्न थाय छे तेनुं कारण द्रव्य-गुणने कहीए एय व्यवहारथी छे. वास्तवमां जे परिणमन थयुं तेनां कारण-कार्य ते परिणमनमां छे, द्रव्य-गुण पण तेनुं कारण नथी. आवी सूक्ष्म वात भाई! कळशटीकामां आवी गयुं के-परिणाम-कार्य थाय तेनां द्रव्य-गुण उपचारमात्रथी कारण छे. निर्मळ पर्यायनो अनुभव प्रगट थयो ते कार्य छे, द्रव्य-गुण तेनां कारण उपचारथी छे, व्यवहारथी छे; ने परवस्तु ने परभाव तो एनां कारण- कार्य छे ज नहि.
सं. १९७१नी सालमां संप्रदायमां बपोरे एक मोटी सभामां व्याख्यानमां अमे कहेलुं के-जीवनी पर्यायमां विकार थाय छे ते कर्मना कारणे थाय छे एम बीलकुल नथी. अमारा गुरु भद्रिक हता, तेओ सांभळता हता. त्यारे आ द्रढताथी कह्युं के जीवमां जे विकार थाय छे ते कर्मने लईने थाय छे ए वात बीलकुल साची नथी. वळी विकारनो नाश थवो ए पण कोई परनुं काम छे एम नथी. विकारनो नाश-व्यय पण पोताना स्वभावना अंतःपुरुषार्थथी थाय छे. कर्मनो नाश थाय तो विकारनो नाश थाय एवी खरेखर वस्तुस्थिति नथी. अहा! ते वखते संप्रदायमां खळभळाट मची गयेलो. दामनगरना एक गृहस्थ शेठ हता ते बोली उठेला के-आ कयां छे भाई? आ तो दोरा विनानी पडाई उडाडे छे; एम के-गुरुए तो आवुं कदी कह्युं नथी, ने आ कयांथी आव्युं? पण भाई! आवी ज वस्तुस्थिति छे.
जड कर्मनी पर्याय थाय छे ते परमाणुना षट्कारकथी थाय छे, ने आत्मानी पर्यायमां विकार थाय छे ते पोताना षट्कारकथी थाय छे, द्रव्य-गुणथी नहि अने परथी पण नहि. विकार थाय छे तेमां कर्म निमित्त अवश्य होय छे, पण तेने लईने जीवने विकार थाय छे एम छे नहि; विकारनो वास्तविक कर्ता कर्म नथी.
जीवत्वशक्ति पछी आ बीजी चितिशक्ति आचार्यदेवे वर्णवी छे. आ चितिशक्ति, कहे छे, अजडत्वस्वरूप छे. भाई! आत्मामां शाश्वत दर्शन-ज्ञानमय चेतनाशक्ति छे ते अजडत्वस्वरूप छे. अने शक्तिनुं कार्य नीपजे ते पण अजडत्वस्वरूप छे. तेथी परद्रव्य-जडद्रव्य अने परभाव तेनां कारण-कार्य नथी. अहो! आ अलौकिक वात छे. ज्ञाननी निर्मळ दशानुं कोई अन्य-परद्रव्य-परभाव कारण नहि, ने कार्य पण नहि. अहा! पूर्वे कदीय जीवे आ अपूर्व मार्ग प्रगट कर्यो नथी; अनंतकाळ एनो रखडवामां-चतुर्गति परिभ्रमणमां ज गयो छे.
अहाहा...! आ चितिशक्ति अजडत्वस्वरूप छे. तेनुं कार्य शुं? तो कहे छे-शुद्ध ज्ञानचेतनारूप परिणाम ते एनुं कार्य छे, विकार-कर्मचेतना ते एनुं कार्य नथी. अहा! आ गुण अने आ गुणी आत्मा-एवो भेद काढी नाखीने अभेद एक चिन्मात्र आत्मानी द्रष्टि करवा वडे शक्तिनुं कार्य जे ज्ञानचेतना-ज्ञानदर्शनरूप परिणाम ते प्रगट थाय छे. अहा! ते परिणामनुं कोई परद्रव्य कारण नथी. शुं कीधुं? भगवाननी वाणी सांभळी माटे सम्यक् ज्ञानमय पर्याय प्रगट थई एम नथी.
तो पहेलां ज्ञान नहोतुं, वाणी सांभळ्या पछी ज्ञान थयुं; तो सांभळवाथी ज्ञान प्रगट थयुं के नहि? तो कहे छे ना, एम नथी; ज्ञाननी दशा पोताथी प्रगट थाय छे, वाणीथी नहि, वाणी सांभळी ते निमित्त अवश्य छे, पण निमित्तने लईने ज्ञान प्रगट थयुं नथी; ज्ञान ते निमित्तनुं कार्य नथी. वळी निमित्तना लक्षे जे ज्ञान थाय ते तो परलक्षी ज्ञान छे, ते कांई वास्तविक-यथार्थ ज्ञान नथी. द्रव्यस्वभावनी अंतःद्रष्टिपूर्वक जे ज्ञान थाय ते ज वास्तविक-सत्यार्थ ज्ञान छे. अरे भाई! जे चेतना पोताने चेते-जाणे नहि तेने चेतना कोण कहे? ए तो जडपणुं थयुं बापु! जे स्वने चेते-जाणे ते ज परने यथार्थ चेते-जाणे छे अने ते ज चितिशक्तिनुं कार्य छे. समजाणुं कांई...!
अनंत धर्मोनुं धाम एक शाश्वत ध्रुव धर्मी आत्मा छे. धर्म एटले शुं? धर्म एटले शक्ति-स्वभाव. अहाहा...! धर्मी एक शाश्वत आत्मद्रव्य छे, अने तेना चिति, द्रशि, ज्ञान, सुख, वीर्य आदि धर्मो त्रिकाळ शाश्वत छे. तेनी पर्याय प्रगटे छे ते एक समयनी छे; पर्याय शाश्वत नथी, क्षणिक छे, पण ते शाश्वत ध्रुवना आश्रये प्रगट थाय छे. शुं कीधुं? आ हुं त्रिकाळी ध्रुव शाश्वत चैतन्यचमत्कार वस्तु आत्मा छुं एम ज्ञान-श्रद्धान करनारी पर्याय त्रिकाळी ध्रुवना आश्रये प्रगट थाय छे. आनुं नाम अनित्यथी नित्य जाणवामां आवे छे. नित्य कांई जाणतुं नथी, केमके नित्य कूटस्थ छे; कार्य