२२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ थाय छे ते पर्यायमां थाय छे. नित्य ध्रुव द्रव्य, ने अनित्य पर्याय-बन्ने मळीने आखी अनेकान्तमय वस्तु आत्मा छे; अने एने ज्ञानमात्र आत्मा कहीए छीए.
आत्मा ज्ञानमात्र स्वरूप छे. आटलुं सांभळी शिष्ये प्रश्न कर्यो के-भगवान! ज्ञानमात्र भाव कहो एमां तो एकांत थई जाय छे. जीव ज्ञानमात्र स्वरूप छे एम कहेवाथी तेमां अनंत गुण न आव्या; अने जो अनंत गुण छे तो एकलो ज्ञानमात्र केम कह्यो? तेना उत्तरमां आचार्यदेव कहे छे-तुं एक वार सांभळ तो खरो. ज्ञानमात्र कहीने अमे तेमां शरीर, कर्म, वाणी अने पुण्य-पापना भावो नथी एम जडपणानो निषेध कर्यो छे. बाकी ज्ञानमात्र आत्मामां एना अनंत गुण समाई जाय छे. अहा! ज्ञानमात्र वस्तु एक ज्ञायक प्रभुनो अंतःसन्मुख थई स्वीकार करतां ज जीवमां ज्ञानचेतना प्रगट थाय छे; तेनी साथे श्रद्धा, चारित्र, सुख, वीर्य इत्यादि सर्व अनंत गुणोनी निर्मळ पर्यायो प्रगट थाय छे. अहाहा...! समुद्रमां कांठे जेम भरती आवे तेम चैतन्यरत्नाकर प्रभु आत्मामां ज्ञानमात्र भावनुं परिणमन थतां सर्व शक्तिओ आनंदना हिलोळे निर्मळ निर्मळ उछळे छे; तेमां आनंदनी भरती आवे छे. आम आवुं आत्मानुं अनेकान्तस्वरूप छे.
प्रश्नः– पण शक्तिओ उछळे एमां धर्म शुं थयो? कांई तप-बप करे तो धर्म थाय ने? उत्तरः– अरे भाई! तुं आत्मा वस्तु-पदार्थ छो के नहि? छो; तो एनो स्वभाव शुं? अहाहा...! चैतन्य... चैतन्य... चैतन्य एनो स्वभाव छे. भगवान! तुं चैतन्यस्वभावमय वस्तु छो. आचार्य भगवान कहे छे-तारी चैतन्यस्वभावमय वस्तुमां ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, आनंद, प्रभुता आदि अनंत शक्ति-गुणनी ऋद्धि भरी छे. अहाहा...! ए चैतन्यस्वभावमय अनंत गुणनिधि प्रभु आत्मद्रव्यना आश्रयमां जतां, तेमां ज अंतर्मग्न थई परिणमतां, अहीं कहे छे, एक साथे अनंत गुणो निर्मळ निर्मळ उछळे छे. निर्मळ ज्ञान, श्रद्धान, चारित्र प्रगट थाय छे. भाई! आ निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान-चारित्रनुं प्रगटवुं ते धर्म नहि तो शुं छे? भाई! आनुं ज नाम धर्म छे. आत्मानी ज्ञान, श्रद्धान, चारित्र आदि शक्तिओ त्रिकाळी द्रव्यना आश्रये निर्मळ निर्मळ परिणमे ए ज धर्म छे, अने ए सिवायनां व्रत, तप आदि कोई धर्म नथी. समजाणुं कांई...? धर्मना दश भेद ने तपना बार भेद ए तो भेदथी-व्यवहारथी कहेवाय छे. बाकी एक वीतराग भाव थवो ते ज धर्म अने चैतन्यनुं स्वरूपविश्रांत थई अंतरंगमां प्रतपवुं ते ज तप छे, ‘सम्यग्ज्ञान दीपिका’मां क्षुल्लक श्री धर्मदासजीए लख्युं छे के-आत्मा एक अने परिषह बावीस कयांथी आव्या? आत्मा एक अने धर्मना प्रकार दश कयांथी आव्या? ए तो भेदथी कथन कर्युं छे. बाकी कांई धर्म दश नथी; वीतरागभाव एक ज धर्म छे. वीतराग परमेश्वरनो आवो मारग छे. बाकी बधा पामरना ने पामरताना पंथ छे. आवी वातुं छे.
अहा! ज्ञानमात्र आत्मामां ‘ज्ञान छे’ एम कहेतां ज्ञानमां अस्तित्व गुणनुं रूप आव्युं. आम जुदो अस्तित्व गुण सिद्ध थयो. ज्ञान आनंदरूप छे एम कहेतां ज्ञानमां आनंद गुणनुं रूप आव्युं. आम जुदो आनंद गुण सिद्ध थयो. एम ज्ञानमां अनंता गुणोनुं रूप होवाथी आत्मामां अनंत गुण सिद्ध थाय छे. अहाहा...! भगवान आत्मा, आ प्रमाणे, अनंत गुणनुं गोदाम छे, शुं कीधुं? विकारनुं गोदाम छे एम नहि; अहाहा...! जेमां अनंत गुण निर्मळ उछळे एवा पवित्र गुणोनुं गोदाम प्रभु आत्मा छे. भाई! आ पुण्य-पापना जे भाव छे ए तो औपाधिकभाव छे अने ते पर्यायद्रष्टिथी कृत्रिम ऊभा थाय छे. वस्तुमां ते उत्पन्न थाय एवी कोई शक्ति नथी. ए तो पर्यायद्रष्टि जीवने पर्याय उपर लक्ष जाय छे तो विकृत दशा उत्पन्न थाय छे. बाकी वस्तु-भगवान आत्मा तो एक सेकन्डना असंख्यातमा भागमां (प्रतिक्षण) अनंत शुद्ध शक्तिनो चैतन्यमय पिंड छे. अहाहा...! परवस्तु-निमित्त, राग-विकार ने एक समयनी पर्याय-अंश-एनुं लक्ष छोडीने त्रिकाळी पूर्ण-ज्ञानघन निज आत्मद्रव्य उपर नजर ठेरवतां ज अनंत गुणनी निर्मळ पर्याय उत्पन्न थाय छे. आनुं नाम धर्म छे, ने आ मोक्षमार्ग छे. आ सिवाय व्रत, तप आदि कांई (-धर्म) नथी. समजाणुं कांई...?
आ सत् नारायणनी कथा छे. सत्नारायण नाम कोईनुं होय एनी आ वात नहि, आ तो सत् नाम भगवान आत्मा तेनी परमात्मा थवानी कथा छे. अहाहा...! नरमांथी नारायण थवानी-परमात्मा-भगवान थवानी भगवाने कहेली आ भागवत कथा छे. अहीं कहे छे-अजडत्वमय चितिशक्ति अर्थात् पूरण चैतन्यस्वभावनो सागर सच्चिदानंद प्रभु आत्मा छे; अहाहा...! तेना आश्रये परिणमतां-तेमां अंतर्लीन थई परिणमतां चैतन्यस्वभावनो सागर प्रभु अनंत शक्तिओ सहित उछळे छे. अहाहा...! तेमां चितिशक्ति सहित अनंत शक्तिओ पर्यायमां निर्मळपणे उपजे छे. आ अनेकांत छे. आत्माने ज्ञानमात्र कीधो तो तेमां एकलुं ज्ञान छे एम नहि, ज्ञाननी साथे जीवत्व, दर्शन, श्रद्धा, आनंद,