२४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ ए तो त्रिकाळ जीवता-जागता जीवनी जाहेरात करे छे. भाई! आ शक्तिओ छे ए तो अंदर भगवानना दरबारनो अनुपम अणमोल खजानो छे; अंतःसन्मुख द्रष्टि वडे तेने खोली दे. अहाहा...! चैतन्यनुं निधान ध्रुवधाम प्रभु आत्मा छे, अहाहा...! आवा पोताना ध्रुवधामने ध्येय बनावी, धीरजथी ध्याननी धधकती धूणी धखावी धर्मी जीव जीवन जीवे तेने धन्य छे. सौ जीवो आवुं जीवन जीवो एवो भगवान महावीरनो संदेश छे.
‘अनाकार उपयोगमयी द्रशिशक्ति. (जेमां ज्ञेयरूप आकार अर्थात् विशेष नथी एवा दर्शनोपयोगमयी- सत्तामात्र पदार्थमां उपयुक्त थवामयी-द्रशिशक्ति अर्थात् दर्शनक्रियारूप शक्ति.)’
जुओ, आत्मामां अनंत शक्तिओ छे. तेमां जीवत्व अने चितिशक्तिनुं आचार्यदेवे पहेलां वर्णन कर्युं. आ तो वर्णनमां क्रम पडयो, बाकी वस्तुमां तो शक्तिओ अक्रमे छे. हवे अहीं त्रीजी द्रशिशक्ति कहे छे. केवी छे द्रशिशक्ति? तो कहे छे-‘अनाकार उपयोगमयी द्रशिशक्ति’ छे. द्रशि नाम दर्शन-देखवारूप आ शक्ति छे. ते आत्मद्रव्यने देखे छे, पोताने देखे छे, परने देखे छे; गुणने देखे छे, पर्यायने देखे छे; अने ते बधाने भेद पाडया विना देखे छे. आ स्वद्रव्य छे, आ परद्रव्य छे; आ चेतन छे, आ अचेतन छे एम भेद पाडीने देखती नथी, सामान्य सत्तामात्र वस्तुने ग्रहण करे छे, देखे छे. बहु सूक्ष्म वात भाई!
प्रश्नः– तो शुं दर्शन-उपयोग जीव-अजीव बधाने एकमेक करी देखे छे? उत्तरः– ना, एम नथी; ते सत्तामात्र ज देखे छे, ‘आ सत् छे’ बस एटलुं ज देखवापणुं छे, पण आ स्व छे आ पर छे इत्यादि एमां विशेष ग्रहण करवापणुं नथी. विशेष-भेद पाडीने ग्रहण करवानुं तो ज्ञाननुं कार्य छे.
अहाहा...! अनाकार उपयोगमयी दर्शनशक्ति छे. अनाकार अर्थात् आकार नहि. एटले शुं? शुं तेनो आकार नाम क्षेत्र नथी? एम नथी. भगवान आत्मानुं जे असंख्य प्रदेशी क्षेत्र छे ते ज एनुं क्षेत्र छे. सर्व अनंत गुणनुं आ एक ज क्षेत्र छे. जो क्षेत्र न होय तो शक्ति ज न होय, शक्तिनुं होवापणुं ज सिद्ध न थाय, अने तो वस्तु ज सिद्ध न थाय. दर्शनने अनाकार कह्युं ए तो एनो विषय सामान्य सत्तामात्र ज छे ए अपेक्षाए वात छे. आ चीज आत्मा छे, आ चीज जड छे; आ स्व छे, आ पर छे; आ जीव छे, आ ज्ञान छे-एम भेदरूप आकारनुं ग्रहण दर्शनशक्तिमां नथी, बधुं सामान्य सत्पणे ग्रहण होय छे बस. भाई! आ शक्तिनुं सामर्थ्य तो जो. अहाहा...! तेनुं क्षेत्र तो असंख्य प्रदेशी ज छे, पण आखा लोकालोकने देखी लेनारा केवळदर्शनरूप थाय एवुं एनुं अपरिमित बेहद सामर्थ्य छे. ओहो! आ तो अलौकिक वस्तु छे.
भाई! तारी वस्तु आवी अपार-अनंत समृद्धिथी भरी छे. पण अरे! तें तारा चैतन्यनिधानमां नजर करी नहि! भाई! तुं मान के दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि शुभ-अनुष्ठान वडे धर्म थई जशे पण एवी तारी चीज नथी बापु! ने एवुं धर्मनुं स्वरूप पण नथी. विचार तो कर; अनादि काळथी क्रियाकांडना रागनुं सेवन करीने मरी गयो पण धर्म प्रगट थयो नहि. अरे! तारो चैतन्य महाप्रभु भगवानस्वरूपे अंदर विराजे छे तेनो तें अनादर कर्यो छे; अने देह अने रागनो आदर कर्यो छे. देखवानी शक्तिवाळो जे देखनार महाप्रभु छे तेने तें देख्यो नहि! अहा! देखनारने देखवानी दरकार सुद्धां करी नहि! पण भाई! अंदर देखनारो दृष्टा छे तेमां द्रष्टि करे त्यारे ज धर्म प्रगट थाय. आवी वात!
अहाहा-! आ आत्मा कारणपरमात्मा छे. त्रिकाळी ध्रुव चिन्मात्र द्रव्यने कारण परमात्मा कहेवाय छे, अने केवळदर्शन, केवळज्ञाननी पर्याय प्रगट थाय तेने कार्यपरमात्मा कहे छे. त्यारे एक वार प्रश्न थयो हतो के-
“जो भगवान आत्मा ध्रुव कारणपरमात्मा छे तो तेनुं कार्य प्रगट थवुं जोईए ने?” त्यारे कह्युं‘तुं के-ध्रुव द्रव्य ते कारणपरमात्मा छे, पण तेनी जेने द्रष्टि थाय तेने तेनुं कार्य पर्यायमां प्रगट थाय छे. अहाहा...! वस्तु-कारणपरमात्मा तो पूर्णानंदस्वरूपे नित्य विराजमान छे; पण तेनी द्रष्टि अने तेमां रमणता- लीनता करे तेने पर्यायमां कार्यपरमात्मा प्रगट थाय छे. हवे जेने हुं परमात्मस्वरूप त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य छुं एम स्वीकार