२८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ द्रष्टा, गुण द्रष्टा, अने पर्याय पण एक द्रष्टाभावरूप प्रगट थाय छे. अहा! आ दर्शनशक्ति क्रमे निर्मळ निर्मळ एवी परिणमे के आखा लोकालोकने देखनारा केवळदर्शनरूप परिणमी जाय छे. ते लोकालोकना पदार्थोने करे एम नहि, मात्र सामान्यसत्तारूप देखे बस. अहा! आम द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे एवी दर्शनशक्तिना उपयोग वडे तुं देखे ते यथार्थ देखवुं छे. केमके तेमां परावलंबन नथी. बाकी इन्द्रियोना के विकल्पना आलंबने-आश्रये जे उपयोग प्रगट थाय ते तो आत्मानो उपयोग ज नथी, ते शक्तिनुं कार्य नथी. शक्तिनी साथे एकता करी परिणमे ते शक्तिनुं कार्य छे. आवी वात छे.
अहाहा...! आत्मानी एकेक शक्ति अनंत शक्तिमां व्यापक छे. अने ते प्रत्येक शक्ति द्रव्यद्रष्टि थतां पर्यायमां पण व्यापे छे. आ दर्शनशक्ति छे तेय द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. त्यां शक्ति ध्रुव त्रिकाळ छे ते ध्रुव उपादान छे, अने तेनी वर्तमान पर्याय प्रगट थाय ते क्षणिक उपादान छे.
तो कोई निमित्त छे के नहि? इन्द्रियादि बाह्य पदार्थो तेमां निमित्त हो, पण शक्तिने तेनुं आलंबन नथी. निर्मळ दर्शनोपयोग प्रगट थाय ते स्वालंबी छे, इन्द्रियादि बाह्य चीजोथी ते निरपेक्ष प्रगट थाय छे. अहा! दर्शनशक्ति तो ध्रुव छे, पण तेनुं अनाकार उपयोगरूपे परिणमन थाय छे ते तेनी इन्द्रियादि निमित्तथी निरपेक्ष स्वालंबी क्रिया छे. शक्तिना परिणमननां छए कारको स्वाधीन छे. अहो! आवो अद्भुत अलौकिक कोई आत्मद्रव्यनो महिमा छे. भाई! आ बधुं पोताने जाणवा-समजवा माटे छे. बीजाने विस्मय पमाडवानी आ वात नथी. भाई! अद्भुत अनंत आश्चर्योनुं निधान चैतन्यचमत्कार वस्तु तुं छो. तेनो अंतरमांमहिमा लावी एक वार अंतर-द्रष्टि करी परिणमी जा; एथी तने सुखनुं निधान एवो धर्म प्रगटशे, अने अनादिकालीन संसारनी रझळपट्टी मटशे. समजाणुं कांई...?
आ प्रमाणे आ त्रीजी द्रशिशक्ति पूरी थई.
‘साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति. (जे ज्ञेय पदार्थोना विशेषोरूप आकारोमां उपयुक्त थाय छे एवी ज्ञानोपयोगमयी ज्ञानशक्ति.)’
‘साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति’ -अहाहा...! शुं कहे छे? पहेलां निरंजन निराकार द्रशिशक्ति कही. ते ज्ञेयपदार्थोने सर्वने सत्तामात्र देखवारूप छे. अहीं कहे छे-जे समये द्रशिशक्ति छे तेज समये आत्मामां साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति छे. ज्ञानशक्ति साकार छे एटले शुं? के ते ज्ञेयपदार्थोने-स्व अने पर, जीव अने अजीव सर्व पदार्थोने-विशेषपणे भिन्न भिन्न करीने पण जाणे छे. ज्ञान अभेदने जाणे छे, भेदने पण जाणे छे; द्रव्य-गुण-पर्याय- सर्वने जाणे छे. अहाहा..! ज्ञाननुं कोई अलौकिक सामर्थ्य छे, एनो आ महान विशिष्ट स्वभाव छे के ते सर्वने-सर्व भावोने भेदरूप पण जाणे छे. अध्यात्म पंचसंग्रहमां आवे छे के-
अहो! एक समयनी पर्यायमां द्रशिशक्तिनो उपयोग कोई पण भेद कर्या विना पूर्ण देखे अने ते द्रशिशक्तिना परिणमननी साथे ज्ञानशक्तिनुं जे परिणमन छे ते परिणमन एकेक द्रव्यने भिन्न भिन्न जाणे, एकेक गुणने भिन्न भिन्न जाणे, एकेक पर्यायने भिन्न भिन्न जाणे, अने एकेक पर्यायना अनंत अविभाग प्रतिच्छेदोने भिन्न भिन्न जाणे. आ रीते एक समयनी ज्ञाननी पर्याय सर्वने भिन्न भिन्न जाणे अने ते ज समये द्रशिशक्तिनी पर्याय सर्वने अभिन्न देखे. अहो! आ ज्ञाननी कोई अद्भुत लीला छे. आवी वात!
हवे इन्द्रियोथी-निमित्तथी ने विकल्पथी आत्मा जाणे ए तो कयांय दूर रही गयुं (अज्ञानमां गयुं), अहीं तो कहे छे-आत्मामां साकार उपयोगमयी एक ज्ञानशक्ति छे जेना एक समयना निर्मळ उपयोगमां स्व-पर सहित सर्व जीव-अजीव पदार्थो जाणवामां आवे छे. अहाहा...! ज्ञाननी एक समयनी पर्यायमां अनंता सिद्धो ने केवळी भगवंतो ज्ञेयपणे जणाय एवुं अचिंत्य एनुं सामर्थ्य छे. समजाय छे कांई...?
ज्ञानशक्ति साकार उपयोगमयी छे. साकार एटले शुं? प्रदेश अपेक्षा तेने आत्मानो असंख्यप्रदेशी अरूपी आकार-क्षेत्र छे माटे ज्ञान साकार छे एम वात अहीं नथी. वळी तेने जेम जड-पुद्गलने स्पर्शादि सहित आकार- मूर्तपणुं होय छे तेवो मूर्त आकार छे एम पण नथी, केमके आत्मा तो त्रिकाळ अरूपी-अमूर्त ज छे. तेथी पुद्गलनी जेम मूर्तपणुं