नहि होवाथी ज्ञान अरूपी अनाकार-निराकार ज छे. तो साकार केवी रीते छे? अहाहा...! ज्ञानमां स्व-पर सहित चेतन-अचेतन समस्त पदार्थोने विशेषपणे आकारो सहित जाणवानुं विशेष-असाधारण सामर्थ्य छे तेथी ते साकार छे. आ प्रमाणे-
-अरूपी आकार-क्षेत्र सहित होवाथी साकार छे, पण ए वात अहीं नथी.
-स्व-परने-द्रव्य-गुण-पर्याय सहित समस्त पदार्थोने विशेषपणे भिन्न भिन्न जाणवाना असाधारण सामर्थ्य
अहा! भेदने विषय नहि करती होवाथी दर्शनशक्ति अनाकार उपयोगमयी छे, अने भेद-अभेद सर्वने जाणी लेतुं होवाथी ज्ञान साकार छे. अहो! ज्ञाननी कोई अचिंत्य अद्भुत लीला छे.
अहा! स्वाभिमुख ज्ञाननो उपयोग पोताने जाणे छे, त्रिकाळी ध्रुवने जाणे छे, साथे एना अनंता गुणोने ने अनंती पर्यायोने जाणे छे, अंतरंगमां प्रगट थयेली अतीन्द्रिय आनंदनी लहरने पण जाणे छे. भले श्रुतज्ञाननो उपयोग होय, श्रुतज्ञाननी पर्यायनुं पण सामर्थ्य एटलुं छे के ते पोताना त्रिकाळी द्रव्यने, त्रिकाळी गुणोने अने पोतानी अनंत पर्यायोने जाणे छे अने अनंता पर द्रव्य-गुण-पर्यायने-बधाने ज्ञाननी पर्याय जाणी ले छे. अहाहा...! जाणवानो जेनो अक्षय अपरिमित स्वभाव छे ते कोने न जाणे? अहाहा...! ज्ञान पोते पोतामां ज स्थित रहीने सर्वने जाणी ले छे. अहा! आवी साकार उपयोगमयी जीवमां ज्ञानशक्ति त्रिकाळ छे. अहा! आवी शक्तिवाळा शक्तिवान आत्मानो महिमा लावी अंतरमां एनी रुचि करे तेने केवळज्ञाननी शंका रहे नहि.
भाई! तारो आत्मा तो अक्षय अपरिमित ज्ञानस्वभावनो समुद्र छे. अहाहा...! तेमांथी निरंतर ज्ञाननी पर्यायो -लहरो उठया करे एवुं तेनुं सामर्थ्य छे. सादि-अनंतकाळ पर्यंत तेमांथी केवळज्ञान नीकळ्या ज करे तोय ज्ञान स्वभावमां कांई क्षति न थाय एवुं तारा केवळज्ञानस्वभावनुं अचिंत्य सामर्थ्य छे. भाई! तुं अंदर जो तो खरो; तत्काल तने तेनी रुचि-प्रतीति थशे.
अहाहा...! दर्शनशक्ति जरा सूक्ष्म छे. दर्शनशक्तिनी पर्यायमां द्रव्य-गुण-पर्याय सहित स्व-पर सर्वंने देखवानुं कार्य थाय छे, पण दर्शनशक्तिनो उपयोग साकार नथी. आ ज्ञानशक्ति छे ते साकार उपयोगमयी छे. पूर्ण स्वद्रव्य, त्रिकाळी ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनंत गुण अने पोतानी अनंती पर्याय अने ते सिवाय अनंता पर द्रव्य-गुण-पर्याय ए बधुं ज एक समयमां साकार नाम विशेषपणे जाणवारूप परिणमन करे एवुं अद्भुत आ ज्ञानशक्तिनुं कार्य छे. आवो झीणो मारग!
हा, पण आवुं ज्ञान प्रगट केम थाय? बहु शास्त्र भणे तो थाय खरुं ने? अरे भाई! ज्ञान तो आत्मानी निजशक्ति छे. हवे निजशक्तिने जाणी शक्तिवान त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यमां द्रष्टि स्थापित करे त्यारे शक्ति स्वयं परिणमी जाय छे, पर्यायमां व्यक्त थाय छे. ज्ञानशक्तिनुं परिणमन कयांय बहारथी- शास्त्रमांथी के देव-गुरु आदिमांथी नथी आवतुं. अहा! महामहिमावंत ज्ञानशक्तिवाळा आत्मानी द्रष्टि कर्या विना एकला परलक्षे शास्त्र कोई भणी जाय तोय शुं? एथी कांई शक्तिनुं कार्य जे सम्यग्ज्ञान ते प्रगटतुं नथी. शास्त्र तो बापु! निमित्तमात्र छे. तेय कोने? जे अंतर-अवलंबने परिणमे तेने. जे स्वस्वरूपनुं आलंबन ले नहि तेने शास्त्र शुं करे? कांई ज न करे. समजाणुं कांई...?
जुओ, अभविने ज्ञाननी परिणति नथी अहाहा...! अनेक शास्त्र भणे, अगियार अंग भणे तोय अभविने ज्ञाननी परिणति नथी. झीणी वात छे भाई! अभविने ज्ञाननो क्षयोपशम छे, पण अभव्यत्वरूप अयोग्यता छे ने? मिथ्याद्रष्टि छे ने? तेथी तेने ज्ञाननी परिणति नथी, तेने शुद्धज्ञानमय आत्मानुं ज्ञान-श्रद्धान उदय पामतुं नथी. ज्ञाननी परिणति तो शुद्ध सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे. एम तो ज्ञाननी पर्यायमां अज्ञानीने पण आत्मद्रव्य जाणवामां आवे छे. आवो १७-१८ गाथामां पाठ छे. ज्ञानगुण तो त्रिकाळ ध्रुव छे, तेमां जाणवानुं कार्य थतुं नथी, जाणवानुं कार्य पर्यायमां थाय छे. तो जाणवानी पर्यायमां अज्ञानीने पण स्वद्रव्य जाणवामां आवे छे, पण तेनी द्रव्य उपर द्रष्टि नथी, तेनी पर्याय अने राग उपर ज द्रष्टि छे. तेथी पर्याय ने राग हुं छुं एम ते जाणे छे, माने छे. आ रीते शास्त्र भणवा छतां अंतःद्रष्टि विना अज्ञानीने शास्त्र भणवानो लाभ थतो नथी. आवी वात! समजाणुं कांई...?