Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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३०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११

अहाहा...! कहे छे-साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति छे. ‘उपयोगवाळी’ एम नहि, ‘उपयोगमयी’ एम कहीने उपयोगनुं ज्ञानगुण साथे अभेदपणुं होवानुं सिद्ध कर्युं छे. अहाहा...! जे उपयोग ज्ञानस्वभावी स्वद्रव्यमां एकाकार-अभेद थई प्रवर्ते तेने ज, कहे छे, अमे उपयोग कहीए छीए. अहा! जे उपयोग बहार परद्रव्यमां ने रागादिमां तन्मय थई प्रवर्ते तेने आत्मानो उपयोग कहेता ज नथी, तेने निर्मळ ज्ञाननी परिणति कहेता नथी; ए तो अज्ञान छे. आ शक्तिनो अधिकार बहु सूक्ष्म छे. आ पोताना हितनी वात छे, पण हित कयारे थाय? अहाहा...! वर्तमान ज्ञाननी पर्याय ज्ञानस्वभावी स्वद्रव्यनी सन्मुख थई तेमां तन्मयपणे प्रवर्ते त्यारे ‘आ हुं ज्ञानस्वभावी स्वद्रव्य छुं’-एम ज्ञान-श्रद्धान प्रगट थाय छे; आनुं नाम सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान छे, अने आ हितरूप धर्म छे. अज्ञानीने पण ज्ञाननी दशामां स्वद्रव्य जणाय छे, पण तेनुं लक्ष त्यां स्वद्रव्य पर नथी, तेनुं लक्ष बहार पर्याय ने रागादि पर छे. तेथी तेने ज्ञानस्वभावी आत्मद्रव्य हुं छुं एम जाणपणुं न थतां आ वर्तमान पर्याय ने रागादि हुं छुं एम मिथ्या ज्ञान-श्रद्धान थाय छे. आ पोताना अहितनी दुःखनी दशा छे. भाई! उपयोग निजस्वरूपमां एकाकार-अभेद थई प्रवर्ते ते ज हितनी दशा छे; ते ज मोक्षमार्ग छे.

अहाहा...! आ ज्ञानशक्ति छे ते सहज स्वभावरूप पारिणामिकभावरूप छे. अज्ञानी जीवने एनी खबर नथी. अहाहा...! पण आ त्रिकाळ पारिणामिकभाव छे एम जणाय कयारे? एनुं भान कयारे थाय? तो कहे छे- स्वस्वरूपमां अंतर-एकाग्र थई एनी सत्तानो स्वीकार करे त्यारे. अहाहा...! पारिणामिकभाव तो त्रिकाळ छे, पण अंतर्मुख ज्ञानना परिणमनमां तेनो प्रतिभास थाय त्यारे ते छे एम निश्चय थाय छे. अरे भाई! अंतर- एकाग्रताथी निश्चय कर्या विना ए छे एम वात कयां रहे छे? अहा!आवुं बहु सूक्ष्म वस्तुनुं स्वरूप छे. तेने हमणां नहि समजे तो भाई! कयारे समजीश?

अहा! बस जाणवुं ए ज्ञाननो स्वभाव छे. ज्ञान जेम स्वद्रव्यने जाणे तेम पुद्गलादि परद्रव्यने जाणे छे ने एक समयनी पर्यायमां विकार-राग छे तेनेय जाणे छे. पण तेथी कांई ज्ञान पुद्गलादि परद्रव्यरूप के रागरूप थई जतुं नथी; अर्थात् ते पुद्गलादि परद्रव्यने के रागने करतुं नथी. आ वस्तुस्थिति छे. अनादिथी आ नहि मानतो होवाथी ज जीव अज्ञानी छे. ज्ञान स्वद्रव्यने जाणे तेम तेना अनंत गुणने पण भिन्न भिन्न जाणे छे, पण ज्ञान कांई बीजा अनंत गुणरूप थई जतुं नथी. जो थाय तो ज्ञान ज न रहे, ज्ञाननो अभाव थाय, अने तो द्रव्यनो पण अभाव थाय. पण एम छे नहि. द्रव्यमां एक गुण बीजा गुणरूप थाय एवी वस्तुस्थिति ज नथी. छतां बधा अनंत गुण एक द्रव्यमां अभेदपणे व्यापक छे. अहा! आवा अभेदनी जेने द्रष्टि थाय तेने अंदर आनंद उछळे छे अर्थात् अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. आनुं नाम धर्म छे. लोकोने खबर नहि एटले ‘एकान्त छे’ एम राडो पाडे पण बापु! आ सम्यक् एकान्त छे. तुं सांभळ तो खरो; भाग्य होय तो सांभळवाय मळे एवी आ अलौकिक वात छे.

अहाहा...! आ ज्ञानशक्ति द्रव्यनी अनंत शक्तिमां व्यापक छे. शक्ति कहो के गुण कहो; अहाहा...! एकेक गुण सर्व अनंत गुणमां ने अनंतगुणमय द्रव्यमां व्यापक छे. अहाहा...! आ ज्ञानशक्ति द्रव्यमां व्यापक छे, गुणमां व्यापक छे, अने अभेद एक त्रिकाळी द्रव्यनी द्रष्टि थतां पर्यायमां व्यापक थाय छे. अने त्यारे राग भिन्न रही जाय छे केमके अभेदनी द्रष्टिमां राग व्यापतो नथी. अहा! पहेलां पर्यायमां राग व्यापतो हतो, मिथ्यात्वादि व्यापतां हतां, अने त्यारे संसारनुं फळ आवतुं हतुं; पण हवे ज्यां द्रव्यद्रष्टि थई, आ ज्ञानस्वभावी हुं आत्मा छुं एम द्रष्टि थई तो पर्यायमां ज्ञान ने आनंद उछळ्‌यां, अनंत शक्तिओ निर्मळ उछळी. अहाहा...! अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंद प्रगट थयां. परद्रव्यमांथी मारुं ज्ञान ने सुख आवे छे एवा मिथ्या अभिप्रायनो नाश थई गयो, ने ज्ञानना निर्मळ निर्मळ परिणमननी धारानो क्रम शरू थयो. अहो! आवी द्रव्यद्रष्टि अलौकिक चीज छे.

अहा! आ ज्ञानशक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. तेमां ज्ञानशक्ति त्रिकाळ ध्रुवरूपे छे ते त्रिकाळी ध्रुव उपादान छे अने पर्यायमां ज्ञानना उपयोगरूप तेनुं परिणमन थाय ते क्षणिक उपादान छे. हवे आवी वात तमारी लौकिक कोलेजना भणतरमां बी. ए. ने एल. एल. बी. मां न आवे. पण आ तो केवलज्ञाननी कोलेज बापु! अहाहा...! ज्यां ज्ञानशक्तिनुं स्व-आश्रये निर्मळ परिणमन थयुं त्यां ए ज्ञाने पोतानुं त्रिकाळी द्रव्य जाण्युं, पोताना अनंत गुण जाण्या, पोतानी निर्मळ परिणति पण जाणी; अहाहा...! ते समये अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थयुं तेम (पोतानुं छे एम) जाण्युं, अहाहा...! पण व्यवहाररत्नत्रयनो राग कयांय दूर रही गयो. (पोतानो छे एम न जणायो.) अहाहा...! आनुं नाम अनेकान्त छे. व्यवहारथी-रागथी पण धर्म थाय अने निश्चयथी पण धर्म थाय एवुं अनेकान्तनुं स्वरूप नथी; ए तो फुदडीवाद छे.