आ शक्तिनुं वर्णन चाले छे. तेमां ज्ञानशक्ति छे ते त्रिकाळी गुण छे, अने गुणनुं धरनारुं त्रिकाळी द्रव्य छे ते गुणी छे. अहाहा...! त्यां गुणी-त्रिकाळी द्रव्य सन्मुखनी द्रष्टि थतां शक्ति छे ते क्रमवर्ती निर्मळ निर्मळ परिणमे छे, ने विकार तो कयांय भिन्न रही जाय छे. अरे भाई! शक्ति अने शक्तिना परिणमनमां विकारनो सदाय अभाव छे, केमके विकारने करे एवी आत्मद्रव्यमां कोई ज शक्ति नथी. आ व्यवहाररत्नत्रयनो राग थाय ते शक्तिनुं कार्य नथी, निर्मळ ज्ञानानंदमय परिणमनमां व्यवहार रत्नत्रयनो तो अभाव ज छे. आ अनेकान्त छे. अहो! आवो मार्ग दिगंबर संतोए खुल्लो कर्यो छे. हवे एमां मने न समजाय एवुं शल्य जवा दे भाई! संतोए तने समजाय एवी चीज छे एम जाणीने आ वात करी छे.
भाई! जिज्ञासाथी ध्यान दईने आ समजे तो आत्मज्ञान थई जाय एवी आ वात छे. अहा! पाणीनी तरस लागी होय तो घरे घोडो होय तेने न कहेवाय के-पाणी लाव; पण जेनामां समजशक्ति छे तेवा आठ वरसना बाळकने कहेवाय के पाणी लाव. अहाहा...! तेम आचार्यदेव जेनामां समजशक्ति छे एवा संज्ञी भव्य जीवोने कहे छे के-ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्माने तुं जाण. अहाहा... अंदर जाणवाना स्वभाववाळो भगवान आत्मा तुं छो-तेने तुं जाण. अहाहा...! आचार्यदेव कांई जड शरीरने के रागने कहेता नथी के तुं आत्माने जाण!
ओहो...! ‘साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति’ कहीने आचार्यदेवे केटलुं भरी दीधुं छे! शक्तिमां व्यापक-तन्मय थईने प्रगट थती ज्ञाननी क्रमवर्ती पर्यायने पोतानां कर्ता, कर्म आदि षट्कारक स्वाधीन छे. कांई परना के रागना आश्रये ज्ञान परिणमे छे एम नथी. अहा! ज्ञाननां कारको परमां ने रागमां नथी, पण ज्ञाननां कारको ज्ञानमां ज छे. अहाहा...! ज्ञानशक्तिमां कर्ता, कर्म, करण आदि आत्मद्रव्यनी षट्कारक शक्तिओनुं रूप छे. शुं कीधुं? ज्ञानशक्तिमां षट्कारक शक्तिओ नथी, पण तेमां षट्कारक शक्तिओनुं रूप छे. तेथी ज्ञान स्वयं ज कर्ता थईने, साधन थईने पोतामां स्वतंत्र ज्ञाननुं कर्म करे छे, तेने कोई परनी के रागनी अपेक्षा नथी. हवे आवी वात पैसा ने आबरू रळवामां रोकाई गया होय ने विषयोमां रोकाई गया होय तेमने शें समजाय?
पण अरे भाई! ए पैसा ने आबरू ने विषयो-ए बधुं तो जड माटी-धूळ छे. एमां-जडमां सुख कयां छे के तने मळे? एमांथी सुख मळे एम त्रणकाळमां संभवित नथी. सुख तो तारा आत्मानो स्वभाव छे; तेमां एकाग्र था ने तेमां ज रोकाई जा; तने सुख मळशे.
अहा! स्वस्वरूपमां तन्मय एवी ज्ञाननी पर्याय पोताने जाणती प्रगट थई ते तेनी जन्मक्षण छे. प्रवचनसार गाथा १०२मां आ वात आवे छे. अहा! उत्पन्न थवानो ते काळ हतो तो ज्ञाननी पर्यायनो उत्पाद थयो. ते उत्पाद पूर्व पर्याय अने ध्रुवनी अपेक्षा राखतो नथी. जरा झीणी वात छे भाई! ज्ञाननी पर्याय ध्रुवनी सन्मुख थयेली ध्रुवने जाणे खरी, पण ते पर्याय ध्रुवनी अपेक्षा राखती नथी. ते पर्याय पोते ज कारण अने पोते ज कार्य छे. हवे आम छे त्यां परथी-देव-गुरु-शास्त्रथी थाय ने व्यवहारथी थाय ए वात ज कयां रहे छे? अहा! आवी चैतन्यना उपयोगमयी आत्मानी एक असाधारण ज्ञानशक्ति छे जे एक ज्ञानमात्र भावमां उछळे छे, अने त्यारे श्रद्धा, चारित्र आनंद आदि अनंत शक्तिओ भेगी उछळे छे अने आत्माने अचिंत्य आनंद पमाडे छे. आवो मार्ग छे भाई!
अहा! आवा ज्ञानस्वभावी आत्मानी स्वसन्मुख थई अंतर-प्रतीति करवी ते सम्यग्दर्शन छे अने ते धर्म छे. आ प्रमाणे आ चोथी ज्ञानशक्ति पूरी थई.
‘अनाकुळता जेनुं लक्षण अर्थात् स्वरूप छे एवी सुखशक्ति.’ अहाहा...! शुं कीधुं? के आत्मामां जीवना जीवनरूप जेम एक जीवत्वशक्ति छे तेम एक अतीन्द्रिय आनंदशक्ति छे; अर्थात् आत्माना अनाकुळ आनंदस्वभावमय आनंदशक्ति छे. अहाहा...! आत्मा त्रिकाळ सच्चिदानंद प्रभु छे. एमां सत् नाम शाश्वत चित् अने आनंद शक्ति त्रिकाळ पडी छे. जेम द्रव्य त्रिकाळ छे तेम तेमां अतीन्द्रिय आनंदनी शक्ति त्रिकाळ पडी छे. अहाहा...! त्रिकाळी ध्रुव आत्मद्रव्य अंदर पूरण आनंदना स्वभावथी भरेलुं छे तेना आश्रये परिणमतां, तेनी सन्मुख द्रष्टि करी परिणमतां, अंदरथी आ आनंदशक्ति उछळे छे अर्थात् अतीन्द्रिय आनंदना संवेदनवाळी अनाकुळ