३२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ दशा प्रगट थाय छे. गाथा पमां आचार्यदेव कहे छे ने के-अमने निरंतर झरतो-आस्वादमां आवतो सुंदर जे आनंद तेमय प्रचुरस्वसंवेदनस्वरूप स्वसंवेदन प्रगट छे. अहाहा...! ते आ आनंदशक्तिनुं कार्य छे. समजाणुं कांई...! अहाहा...! अंदर आनंदशक्तिपणे पूरण भरेलो छे, आचार्यने तेनी व्यक्ति प्रगट दशामां थई छे. आवी वात!
आ सुखशक्तिनुं वर्णन छे. केवी छे सुखशक्ति? तो कहे छे-अनाकुळता लक्षणस्वरूप छे. शुं कीधुं? एक समयनी वर्तमान दशामां आकुळता-दुःख छे ते गौण छे, अंदर वस्तु त्रिकाळी ध्रुव नित्यानंद छे ते अनाकुळतालक्षण छे. झीणी वात छे प्रभु! ‘कांईक हुं करुं’-एवी वृत्ति जे उठे ते आकुळता छे. शुभाशुभ विकल्प उठे ते आकुळता छे. पण मारे कांई ज करवुं नथी, ज्ञान पण करवुं नथी, थाय छे तेने शुं करवुं? अहाहा...! आवी सर्व विकल्प रहित, कांईपण करवाना बोजा रहित निर्भारता ते अनाकुळता छे. अहाहा...! आवी अनाकुळता लक्षण सुखशक्ति छे, अने तेनुं कार्य पण अनाकुळ आनंदमय छे; एनो स्वाद भगवान सिद्धना सुख जेवो होय छे. समजाणुं कांई...?
४७ शक्तिना आ अधिकारमां श्रद्धा अने चारित्र-ए बन्ने शक्तिओनुं अलगथी वर्णन कर्युं नथी. आ सुखशक्तिमां ते बन्ने शक्तिओ समावी दीधी छे. सुखशक्तिनी जेम श्रद्धाशक्ति त्रिकाळ छे. आ ज्ञानानंदमय त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य ते हुं छुं एवी प्रतीति-श्रद्धान थाय ते तेनुं कार्य छे. अहाहा...! सम्यग्दर्शनरूप थवुं ते श्रद्धाशक्तिनुं कार्य छे; अने ते प्रगटतां साथे ते ज समये नियमथी अनाकुळ आनंदनुं संवेदन प्रगट थाय ज छे. आ प्रमाणे सुखशक्तिना कार्य द्वारा-अनाकुळ आनंदना संवेदन द्वारा श्रद्धाशक्ति अने तेनुं कार्य प्रगट थयानुं समजी शकाय छे. आ रीते सुखशक्तिमां आचार्यदेवे श्रद्धाशक्ति गर्भित करी दीधी छे. (त्यां बन्नेनां लक्षण तो भिन्न ज जाणवां).
अहाहा...! श्रद्धा अने चारित्र तो मूळ चीज छे. ४७ शक्तिमां तेनुं वर्णन नथी तेथी ते नथी एम न समजवुं. बन्नेने आ सुखशक्तिमां समावी दीधेल छे एम यथार्थ जाणवुं. अहाहा...! आत्मामां जेम श्रद्धाशक्ति त्रिकाळ छे तेम चारित्रशक्ति त्रिकाळ छे. स्वरूपाचरण-स्वरूपस्थिरतानी क्रमे विशेषता थवी ते चारित्रशक्तिनुं कार्य छे, अने ते त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यना उग्र आलंबनथी प्रगट थाय छे. अहा! आवी चारित्रनी क्रमवर्ती वीतरागी दशा प्रगट थाय छे त्यारे तेनी साथे नियमथी अनाकुळ आनंदनी प्रचुर-प्रचुरतर दशा अनुभवाय छे. आ प्रमाणे अनाकुळ सुखशक्तिना कार्य द्वारा चारित्र गुणनी दशा समजी शकाय छे.
अहाहा...! स्वस्वरूपना आश्रये स्वरूपरमणतानी आत्मानुभवनी दशा थतां महा वैराग्य अने चारित्रनी दशा प्रगट थाय छे. आ दशामां अनुपम अनाकुळ आनंद भेगो होय ज छे. अहाहा...! आत्मानुभव थतां महा हितकारी वीतरागता सहित अनाकुळ आल्हादजनक सुखनी दशा प्रगट थाय छे. पण अरे! अज्ञानी जीव आवी चारित्रदशाने कष्टदायक माने छे. छहढालामां आवे छे ने के-
पण भाई! एक वार सांभळ तो खरो, अहाहा...! अंदर त्रिलोकीनाथ भगवान सच्चिदानंद प्रभु अनंत शक्तिओनो सागर लहराई रह्यो छे. अहाहा...! तेनी एकेक शक्तिमां बीजी अनंत शक्तिनुं रूप छे; एकेक शक्तिमां अनंत शक्ति व्यापक छे. अहा! आवा अनंत शक्तिमय भगवान आत्माने ज्यारे पर्याय अंतरमां वळीने देखे छे, श्रद्धे छे, ने तेमां रमे छे त्यारे प्रचुर आनंदनी-महा आनंदनी दशा प्रगटे छे. आवी आ आनंदशक्तिमां श्रद्धा अने चारित्र बन्नेने समावी दीधेल छे.
भाई! सम्यग्दर्शन थाय, सम्यक्चारित्र प्रगटे, अने साथे आनंद न आवे एवी वस्तुस्थिति नथी, केमके ज्ञान-मात्र भावना परिणमनमां सर्व अनंती शक्तिओ एक साथे उछळे छे; एटले तो सर्व गुणांश ते समकित एम कह्युं छे. कोई कहे के अमने समकित थयुं छे पण आनंद-अनाकुळ आल्हाद प्रगटयो नथी तो तेनी वात जूठी छे, अर्थात् तेने समकित थयुं ज नथी, ते अज्ञानी ज छे. घणा जैनाभासीओ एवुं माने छे के-अमने समकित तो छे, ने हवे व्रत लईए एटले चारित्र आवी जशे, पण तेमनी ए मान्यता तद्न जूठी छे, केमके अनाकुळ आनंदनी दशा प्रगटया विना समकित होतुं ज नथी; कुळपद्धतिथी कांई समकित होतुं नथी.
संप्रदायमां अमारा गुरुभाई कहेता के-आपणे जैनकुळमां जन्म्या छीए, एटले समकित तो गणधरदेव जेवुं ज थयेलुं छे, हवे बस व्रत, तप, दीक्षा ग्रहण करीए एटले चारित्र थई जाय. अरे भगवान! शुं वात छे आ? सम्यग्दर्शन