कांई कुळपद्धतिनी चीज नथी भाई! अहाहा...! अंदर पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु त्रिकाळ विराजे छे तेनी रुचि-प्रतीति थवी ते सम्यग्दर्शन छे, अने ते स्वानुभूतिनी दशामां प्रगट थाय छे. अहा! आ समकित तो सर्व धर्मनुं मूळ छे भाई! हवे समकित शुं चीज छे एय जाणे नहि ते एनो पुरुषार्थ केम करे? अने विना समकित चारित्रनी दशा केम प्रगट थाय? आ धार्मिक वर्गमां आवेला सौ बराबर जाणे के समकित अने धर्म-चारित्र शुं चीज छे, केमके लोकमां ए ज सारभूत हितकारी चीज छे. आवे छे ने के-
भाई! सम्यग्दर्शननी पर्यायमां आखुं त्रिकाळी आत्मद्रव्य आवी जाय एम नहि, पण एमां पूर्ण आनंदस्वभाव एवा त्रिकाळी द्रव्यनी ने एना पूर्ण त्रिकाळी सामर्थ्यनी प्रतीति-श्रद्धा अवश्य आवी जाय छे. अहो! सम्यग्दर्शन आवी कोई अलौकिक चीज छे. एनी प्राप्ति थतां निर्मळ रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग खुली जाय छे. अहा! चोथे, पांचमे, छठ्ठे गुणस्थाने सम्यग्दर्शन सहित जे अंतरात्मा छे तेने शिवमगचारी कह्यो छे. छहढालामां आवे छे के-
जघन कहे अविरत समदृष्टि, तीनों शिवमगचारी.
अहीं मार्गमां गमन शरू कर्युं छे तो चोथे अविरत सम्यग्द्रष्टिने पण शिवमगचारी कह्यो छे. चारित्रनी पूर्णता तो चौदमा गुणस्थानना अंतसमयमां थाय छे; छतां छट्ठा सातमा गुणस्थानमां स्वस्वरूपनी द्रष्टि सहित स्वरूपमां रमणता-लीनतानी विशेष दशा प्रगट थाय छे, अने त्यारे साथे प्रचुर आनंदनी दशा प्रगटे छे, अहा! आ छट्ठा- सातमा गुणस्थानथी मुख्यपणे चारित्र गणवामां आव्युं छे; अने त्यांथी मोक्षमार्ग कहेवामां आवे छे. चोथा गुणस्थानथी मार्ग खुले छे, तथापि चोथामां साक्षात् चारित्रदशा नथी; साक्षात् मोक्षमार्ग नथी. साक्षात् चारित्रदशा तो स्वरूपनी उग्र रमणतानी विशेष दशा थतां प्रगट थाय छे.
जुओ, श्रेणिक राजा क्षायिक समकिती हता. अंदर पूर्णानंदस्वरूप निज आत्मद्रव्यनी निश्चल प्रतीति थई हती. तथापि तेओ चारित्र लई शकया न हता, स्वस्वरूपनी उग्र रमणतारूप चारित्रनी दशा तेमने प्रगट थई न हती. तेवी रीते श्री ऋषभदेव भगवान वर्तमान चोवीसीना प्रथम तीर्थंकर हता; ८४ लाख पूर्वनुं तेमनुं आयुष्य हतुं, क्षायिक समकिती हता, त्रण ज्ञान साथे लईने अवतर्या हता. छतांय ८३ लाख पूर्व सुधी तेओ गृहस्थाश्रममां रह्या, चारित्र धारण न करी शकया. एक पूर्व एटले केटलां वरस खबर छे? एक पूर्वमां ७० लाख प६ हजार करोड वर्ष थाय छे. अहा! आवा ८३ लाख पूर्व सुधी तेओ चारित्र लई शकया न हता. उत्तरपुराणमां एम वर्णन छे के बधा तीर्थंकरो आठ वर्षनी उंमरे बार व्रत धारण करे छे. आ रीते अबजो वर्ष तेमने पांचमुं गुणस्थान रह्युं, पण त्यांलगी आगळ न वधी शकया. चोथे, पांचमे गुणस्थाने, जो के चारित्रनो अंश होय छे, पण मुनिदशाने योग्य साक्षात् चारित्रदशा त्यां होती नथी. अहो! आवी चारित्रदशा कोई अलौकिक होय छे अने ते महा पुरुषार्थी बडभागी पुरुषोने प्राप्त थती होय छे.
भाई! समकितनी प्राप्तिमां जो अंतर्मुख द्रष्टिनो अपूर्व पुरुषार्थ जोईए तो चारित्रदशानी प्राप्तिमां पण स्वरूपरमणतानो महान पुरुषार्थ जोईए. मात्र नग्न थई जवुं के २८ मूळगुण पाळवा तेनुं नाम कांई चारित्र नथी; अंदर आनंदस्वरूप आत्मामां उग्र लीनता-रमणता थई जाय, आनंदस्वरूपनी अस्तिनी मस्तीमां मश्गुल थई जाय तेनुं नाम चारित्र छे. अत्यारे तो चारित्रना नाम पर बधी गडबड थई गई छे. हवे र८ मूलगुणनांय ठेकाणां न होय, पांच महाव्रतनांय ठेकाणां न होय, ने मात्र बहार नग्नता वडे चारित्र मानवा-मनाववा लाग्या छे, पण ए तो अज्ञान छे भाई! एमां तने कोई लाभ नथी बापु! उंधी-विपरीत मान्यतानुं फळ तो बहु आकरुं छे भाई! स्वरूपलीनता विना २८ मूलगुण पण कांई ज नथी बापु! तेथी तो कह्युं के-
पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायो.
अरे, पांच महाव्रत चोख्खां पाळे, अट्ठावीस मूलगुण बराबर धारण करे, पोताना माटे बनावेलां आहार-पाणी प्राणांते पण न ले, तथा अगियार अंग भणी जाय-अहा! आवा क्रियाकांडना शुकल लेश्याना परिणाम पण जीवे अनंत वार