३४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ कर्या छे, अने छतां सम्यग्दर्शन-ज्ञान विना ते लेश पण सुख पाम्यो नथी, अर्थात् दुःख ज पाम्यो छे. मतलब के पांच महाव्रतादिना परिणाम आस्रव होवाथी दुःखरूप ज छे, चारित्र नथी.
तो चारित्रवंत महामुनिवरोने ते होय छे तो खरा? होय छे, चारित्रवंतोने ते अवश्य होय छे, तथापि ते चारित्र नथी, मुनिवरो तेने चारित्र कहेता नथी. चारित्रनी साथे ते भले हो, पण ए बधुं व्यवहार आचरण राग होवाथी दुःखरूप ज छे. तेने समयसार नाटकमां जगपंथ कह्यो छे. त्यां कह्युं छे के-
परमादी जगकौं धुकै, अपरमादि सिव ओर. –४०, मोक्षद्वार.
भाई! जेटलो राग आवे छे ते संसार छे एम पंचसंग्रहमां पण कह्युं छे. आवी वात! समजाय छे कांई...?
अरे, सम्यग्दर्शनना स्वरूपनी अने तेने प्रगटाववानी रीतनी खबर विना जीव पोतानी मति-कल्पनाथी व्रत-तप धारण करीने तेने धर्म मानी ले पण तेथी कांई तेने धर्म थाय नहि. जेने स्वरूपनां श्रद्धान-ज्ञान थयां होय अने स्वरूपनी उग्र रमणता थाय तेने चारित्र ने धर्म थाय छे, अने तेने अंतरमां अनाकुळ आनंदनो प्रचुर आस्वाद आवे छे. अहा! आवा अंतरंग चारित्र विना मुक्ति थती नथी. भाई! जेमां आस्वादमां आवती अतीन्द्रिय आनंदना रसनी प्रबळ धारा प्रगट थाय एनुं नाम चारित्र छे, अने ते सम्यग्दर्शनना अभावमां कदीय होतुं नथी.
अहाहा...! भगवान आत्मा नित्य ज्ञानानंदस्वरूप छे. तेनी अंतर-रमणता थाय ते चारित्रदशा छे. अहा! आवा चारित्र साथे अंदर अतीन्द्रिय आनंदनी प्रकृष्ट धारा वहे छे. आवी अनाकुळ आनंदनी भूमिकामां मुनिने किंचित् व्यवहार-रत्नत्रयनो राग आवे, पण तेनुं तेने स्वामित्व नथी; व्यवहारनो राग अने तेनुं फळ-जे इन्द्र- इन्द्राणीना वैभव ने करोडो अप्सराओनो संयोग आवे ते-एने झेर समान हेयबुद्धिए होय छे. पुण्य अने पुण्यनां समस्त फळ समकितीने झेर जेवां लागे छे. इन्दोरना काचमंदिरमां लख्युं छे के-
कागविट् सम गिनत है, सम्यग्द्रष्टि लोग.
कोईने थाय के पुण्यनां फळने काग-विट् अर्थात् विष्टा समान केम कह्यां? अरे भाई? भगवाने तो पुण्य अने पुण्यनां फळने झेर कह्यां छे. छतां तने पुण्यनो आटलो बधो हठीलो प्रेम केम छे? जो तारे धर्म-चारित्र जोईए छे तो पुण्यनो प्रेम प्रथम ज छोडवो जोईशे; केमके जेणे पुण्यने उपादेय मान्युं छे तेने आनंदस्वरूप आत्मा हेय ज थई गयो छे, अने जेने आत्मा उपादेय छे तेने पुण्य हेय ज होय छे. आवी वात छे.
अहीं कहे छे-अनाकुळता जेनुं लक्षण-स्वरूप छे एवी सुखशक्ति छे. अहाहा...! जेम जाणवुं-जाणवुं ए ज्ञाननुं लक्षण छे. तेम अनाकुळता सुखशक्तिनुं लक्षण छे. अहाहा...! आवा सुखथी भरेलो अक्षय भंडार भगवान आत्मा छे. अहा! ए सुख कोने कहीए? के जेमां आकुळतानुं नामनिशान नथी. सुखशक्तिमां आकुळता नहि ने तेना क्रमवर्ती परिणमनमां पण आकुळता नहि. भाई! तारे सुख जोईए छे तो अनाकुळ सुख जेनो स्वभाव छे एवा तारा आत्मद्रव्यनी द्रष्टि कर अने तेमां ज लीन था. बाकी आ रागादि विकार तो आकुळता छे; पुण्यना परिणाम पण आकुळता छे, दुःखरूप छे. भाई! मारे सुख जोईए एम सुखनी अभिलाष-इच्छा कर्ये सुख नहि मळे, केमके इच्छामात्र दुःखरूप छे, दुःखमूळ छे. कह्युं छे ने के-
माटे इच्छामात्रथी विराम पामी सुखना भंडार एवा स्वस्वरूपमां गुप्त थई जा.
जुओ, हरणनी नाभिमां कस्तुरी होय छे; पण एनी एने खबर नथी. तेथी गंध आवतां एनी शोधमां ते बहार दोडादोड करी मूके छे. पण बहारमां होय तो मळे ने? बिचारुं थाकीने नाहक खेदखिन्न-दुःख थाय छे. तेम भगवान आत्मामां सुखशक्ति त्रिकाळ छे. परंतु अज्ञानी जीवने एनी खबर नथी. तेथी ते सुखनी शोधमां बहार इन्द्रियना विषयोमां-खानपानमां, स्त्रीना देहमां, बाग-बंगलामां, रंगरागमां इत्यादिमां सुख छे एम मानी इन्द्रियना विषयो प्रति दोडादोड करी मूके छे. पण त्यां बहारमां-ए जड पदार्थोमां-सुख होय तो मळे ने? विषयोमां फोगट फांफां