Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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प-सुखशक्तिः ३प

मारीने ते नाहक खेदखिन्न थाय छे, दुःखी ज थाय छे. अरे भाई! बहारना जड विषयोमां सुख नथी, विषयोनी ममता ने अनुरागमां सुख नथी ने केवळ विषयोने ज जाणनारा बहिर्लक्षी ज्ञानमांय सुख नथी. अहा! एक स्वानुभूतिमां ज सुख छे. माटे सुख जोईए तो इच्छाथी विराम पामी स्वानुभूति कर. अहा! ल्यो, आवो मारग!

भगवान आत्मामां शक्तिरूपे सुख त्रिकाळ भर्युं छे. भगवान सिद्धने तेनी पूर्ण व्यक्ति थई छे. सिद्ध भगवानने सुखनी पूर्ण दशा-अनंत सुख होय छे. सिद्ध भगवानने प्रगट आठ गुणना वर्णनमां सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, ने वीर्य ए चार आवे छे. चार घातिकर्मना क्षयथी सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, अने वीर्य प्रगट थाय छे अने चार अघातिकर्मना क्षयथी अव्याबाध, अवगाहन, सूक्ष्मत्व अने अगुरुलघु गुण प्रगट थाय छे. अहा! आवी सर्वोत्कृष्ट दशा अनंतमहिमायुक्त, अनंतशक्तिमय निज आत्मद्रव्यनां ज्ञान-श्रद्धान अने रमणता करतां प्राप्त थाय छे. अरे! लोको (कोई जैनाभासीओ) समज्या विना ज व्रत, प्रतिमा वगेरेने चारित्र कहे छे; पण भाई! ए मार्ग नथी. आत्मा स्वरूपथी ज सदा आनंदमय-सच्चिदानंदमय छे, तेनां ज्ञान-श्रद्धान अने रमणता करतां अनाकुळ सुख प्रगटे छे, तेनी पूर्णता थये पूर्ण सुख-अनंत सुख प्रगटे छे. बस, आ ज मार्ग छे. समजाणुं कांई...?

आ पंदरमी ओगस्टे देशनो स्वातंत्र्य दिवस उजवे छे ने? पण ए तो तारो देश-स्वदेश नहि भाई! तुं एनो स्वामी नहि; ए तो प्रत्यक्ष भिन्न चीज छे बापु! एनी सेवा (ममत्व) कर्ये तने (संसार सिवाय) कांई ज लाभ नथी. अहाहा...! असंख्य प्रदेश-के जेमां आत्मानां अनंत गुण सर्वत्र व्यापीने त्रिकाळ रह्याछे ते एनो स्वदेश छे. अहाहा...! आत्मा एनो स्वामी छे. अहा! आवा स्व-देशनी सेवा सेवन कर्ये अंदर स्वातंत्र्य-स्वराज प्रगट थाय छे, अर्थात् अनंत गुण सहज निर्मळ परिणमी जाय छे. जुओ, आ स्वराज! समयसारनी १७-१८ मी गाथामां आत्माने राजा-‘जीवराया’ -कह्यो छे. अहाहा...! ‘राजते-शोभते इति राजा’ जे अनेक समृद्धि वगेरेथी शोभे ते राजा छे. अहाहा...! जेम बहारमां राजा तेना छत्र, चामर आदि विभूति अने शरीरनी ऋद्धि तथा बाह्य समृद्धि वगेरेथी शोभे छे तेम आ आत्म-राजा पोताना सुखादि अनंत गुणोनी समृद्धिथी शोभे छे. विकार परिणाम अने संयोगथी शोभे ते आत्म-राजा नहि, अने चक्रवर्ती के इन्द्रना वैभवथी शोभे ते पण आत्म-राजा नहि. अहाहा...! जेमां आनंदरसनो आस्वाद आवे एवा अनंतगुण-वैभवनी प्रगटताथी शोभायमान ते आत्म-राजा छे. समजाणुं कांई...!

अहाहा...! जुओ तो खरा मुनिवरोनी अंतरदशा! आत्मज्ञानी ध्यानी निजानंदरसना अनुभवमां लीन मुनिवरो, तेमने देहनी स्थिति पूरी थवानो ख्याल आवी जाय त्यारे केवुंक चिन्तवन करे छे! अहाहा...!

चलो सखी वहां जईए, जहां न अपना कोई;
कलेवर भखे जनावरा, मुवा न रोवे कोई.

अहाहा...! मुनिराज पोतानी शुद्ध परिणतीने कहे छे-ज्यां आनंदनो सागर-आनंद-सुधासिंधु भगवान छे त्यां चालो जईए. अंदर एवा मग्न-लीन थईए के कलेवरने-आ मडदाने शियाळियां खाई जाय तोय खबर न पडे; तथा देह छूटी जाय तो कोई पाछळ रोनार न होय. अहाहा...! केवी अंतर-लीनता अने केवुं निर्ममत्व! आनंदसागर आत्मामां तल्लीन थवा महामुनिराज गिरिगुफामां चाल्या जाय छे; निश्चयथी तो निज शुद्धात्मा चिदानंद प्रभु छे ते ज गिरिगुफा छे.

प्रवचनसारमां चरणानुयोग चूलिकामां दीक्षार्थीनुं बहु सुंदर वर्णन छे. अहाहा...! दीक्षार्थी आत्माना आनंदमां लीन थवा दीक्षित थाय छे त्यारे पोतानी स्त्रीने कहे छे-मारा देहने रमाडनार हे रमणी! मारी अनुभूतिस्वरूप रमणी तो अनादिअनंत अंदर शाश्वत पडी छे, हवे तेनी साथे रमवा अर्थात् मारा स्वस्वरूपमां लीन थवा हुं जाउं छुं. समयसार गाथा ७३मां पण आ त्रिकाळी अनुभूतिनी वात आवी छे. त्यां कह्युं छे-“सर्व कारकोना समूहनी प्रक्रियाथी पार उतरेली जे निर्मळ अनुभूति, ते अनुभूतिमात्रपणाने लीधे शुद्ध छुं.” जुओ, आत्मानी पर्यायमां रागनी क्रिया थाय ते तो मारा आत्मानुं स्वरूप नहि, पण राग रहित निर्विकार परिणति पर्यायना षट्कारकथी थाय ते पण हुं त्रिकाळ अनुभूतिस्वरूप आत्मा नहि. हुं परथी जुदो, रागथी जुदो, ने निर्मळ षट्कारकनी परिणति जे थाय तेनाथीय जुदो त्रिकाळी अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा छुं, आ अनुभूति ते त्रिकाळी एकरूप स्वभावनी वात छे हों, आ अनुभूतिनी पर्यायनी वात नथी. अहाहा...! दीक्षार्थी कहे छे-हुं मारो त्रिकाळी अनुभूतिस्वरूप भगवान ज्यां छे त्यां जाउं छुं, हवे त्यां ज मारे आनंदथी रमवुं छे; माटे आ देहने रमाडनारी हे रमणी! अनुमति दे, अर्थात् मने छोडी दे. ल्यो, अनुमति आपे के न आपे, ए तो सररर अंदर चाल्या जाय छे; वनवास चाल्या जाय छे.