३६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
वळी दीक्षा धारण करवाना प्रसंगे माताने संबोधे छे-हे जनेता! आ शरीरनी जन्मदाता तुं जनेता छो, पण हुं तो अनाकुळ आनंदस्वभावी आत्मा छुं, आ आत्मानी तुं जनेता नथी. मारा आनंदस्वरूपी आत्मामांथी मारी आनंदनी दशानो जन्म थाय छे तेथी निश्चयथी ते ज मारी जनेता छे. माता! मने रजा दे, हुं मारी त्रिकाळ आनंदस्वरूपी मातानी गोदमां जाउं छुं; त्यां हुं एवो रमुं-रमणता करुं के फेर जन्म ना धरुं. माता, एक वार तारे रोवुं होय तो रोई ले, हवे हुं बीजी माता नहि करुं-आ मारो कोल छे. अहाहा...! आम अंतरमां दृढ वैराग्य धारण करीने युवान राजकुमारो प्रचुर आनंदना स्वादनी प्राप्ति अर्थे वनवासमां-आत्मवासमां चाल्या जाय छे. अहाहा...! केवो वैराग्य! केवुं निर्ममत्व!!
अरे! अज्ञानी बाह्यमां सुख माने छे. ज्ञानी ज्यांथी विरक्त थाय छे, अज्ञानी त्यां चैन मानी झंपलावे छे. अज्ञानी स्त्री, परिजन, धन, मकान इत्यादिमां सुख माने छे, अने त्यां ज रोकाई रहे छे. सुख तो पोतामां ज भर्यु छे, पण एनी खबर नथी तेथी ते बधे बहार ज फांफां मारे छे, अने निराश थई दुःखी दुःखी थाय छे.
हा, पण कोई कोई ए संयोगोमां सुखी होय एम देखाय छे? धूळेय सुखी नथी सांभळने. सुख तो दूर रहो, ए संयोगोमां सुखनी गंधेय नथी; उलटुं एना तरफनुं जे वलण छे ते महा पाप अने दुःख छे. भाई! सुख तो तेने कहीए जेमां आकुळतानी छांट पण न होय अने जे कदी नाश न पामी जाय, कदी पलटी न जाय.
गजसुकुमार मुनिनी वात शास्त्रमां आवे छे. ज्यारे श्रीकृष्ण श्री नेमिनाथ भगवाननां दर्शन करवा हाथी पर बेसीने समोसरणमां जाय छे त्यारे तेना खोळामां नानाभाई गजसुकुमार बेठेल छे. मार्गमां एक सोनीनी अति स्वरूपवान कन्या सोनाना गेडीदडे रमती हती. तेने दूरथी जोईने श्रीकृष्णे सेवकोने आज्ञा करी के-आ कन्याने अंतःपुरमां लई जाओ, तेनां गजसुकुमार साथे लग्न करवां छे. सेवको ते कन्यांने अंतःपुरमां लई गया, अने अहीं श्रीकृष्ण गजसुकुमारने लईने भगवाननां दर्शनार्थ समोसरणमां पधार्यां. पछी शुं थयुं? अहा! भगवाननी ॐध्वनि सांभळीने गजसुकुमारनुं चित्त अति दृढ वैराग्यथी भराई गयुं. तेओ बोल्या-नाथ! हुं मुनिपणुं अंगीकार करवा चाहुं छुं. माता देवकी पासे जई कहेवा लाग्या-हे माता! अंदर आनंदनो नाथ विराजे छे तेनी सारसंभाळ-सुरक्षा माटे हुं भगवती दीक्षा अंगीकार करवा मागुं छुं. हवे हुं स्वरूपनी संभाळ माटे वनमां जाउं छुं. हे माता! आ देहनुं ममत्व दूर करो. मारी पर्यायमां जरा दुःख छे, पण ते दुःखनो मारा आनंदनी परिणतिमां अभाव छे.
पछी तो गजसुकुमार भगवान पासे दीक्षित थईने द्वारिकाना स्मशानमां ध्यान करवा चाल्या गया. तेमनुं शरीर हाथीना ताळवा जेवुं लालचोळ, कोमळ हतुं. तेथी तेमनुं नाम गजसुकुमार पाडवामां आव्युं हतुं. अहा! मुनिराज तो निज आनंदस्वरूपना ध्यानमां तल्लीन हता त्यारे क्रोधाग्निथी बळी रहेला पेला सोनीनी कन्याना पिता त्यां आव्या. तेमणे स्मशाननी राख लई तेमां पाणी रेडी गजसुकुमार मुनिना माथा उपर पाळ बनावी, अने अंदर मसाणना धगधगता अंगारा पूर्या; माथा उपर भडभड अग्नि बळवा लागी. पण मुनिराज तो ध्यानमां अचळ रह्या. अहा! एककोर भडभड अग्निथी माथुं बळे अने एककोर मुनिराजे प्रगटावेली ध्यानाग्निमां कर्म बळे. माथुं बळे तेनी तरफ तो मुनिराजनुं लक्ष ज नथी. आखरे ध्यानाग्निमां सर्व कर्म भस्मीभूत थयां. मुनिराज तत्काल केवळज्ञान प्रगटावी परमसुखस्वरूप निजपद-मोक्षपदने पाम्या. अहो! स्वरूपध्याननी-स्वानुभूतिनी दशानो कोई अचिंत्य महिमा छे; एनुं फळ परम सुखधाम एवुं मोक्ष छे.
समयसारनी आत्मख्याति टीकाना मंगलाचरणमां प्रथम ज श्री अमृतचंद्र स्वामी कहे छे-
अहाहा...! कहे छे- ‘नमः समयसाराय’ अहाहा...! राग रहित ज्ञान अने आनंदथी भरेलुं मारुं स्वरूप छे तेने हुं नमन करुं छुं. अहा! समयसार मारो नाथ आनंदनो सागर छे तेमां हुं मारी परिणतिने झुकावी नमन करुं छुं. आवी वात!